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________________ -८८ ] १८. अक्षविषयनिरोधः 977 ) कुलजातीश्वरत्वादिमदमूच्छस्तबुद्धिभिः । सद्यः संचीयते कर्म नीचैर्गति निबन्धनम् ||८५ 978 ) मानग्रन्थिर्मनस्युच्चैर्यावदास्ते दृढस्तव । तावद्विवेकमाणिक्यं प्राप्तमप्यपसर्पति ॥ ८६ 979 ) प्रोत्तुङ्गमानशैलाग्रवर्तिभिः स्तब्धबुद्धिभिः । क्रियते मार्गमुल्लङ्घ्य पूज्यपूजाव्यतिक्रमः ॥८७ 980 ) लुप्यते मानिनः शश्वद् विवेकामललोचनम् । ततः प्रच्युवते ' शीघ्रं शीलशैलाग्रसंक्रमात् ॥ ८८ ४ 977) कुलजातीश्वरत्वादि -२ द - सद्यः शीघ्रं कर्म संचीयते । केः । कुलजातीश्वरत्वादिमदविध्वस्तबुद्धिभिः कुलमदजातिमदईश्वरत्वादिमदैविध्वस्ता बुद्धिर्येषां ते कुलजातीश्वरत्वादिमदविध्वस्तबुद्धयः । तैः । तथा कीदृशं कर्म । नीचैर्गतिनिबन्धनं कारणम् । इति सूत्रार्थः ॥ ८५ ॥ अथ माने सति विवेकाभाव इत्याह । ३२५ 978 ) मानग्रन्थिः - हे भव्य, ते तव मनसि उच्चैर्यावद् मानग्रन्थिरास्ते दृढः तावद् यावतीः । समाराधिकरणत्वात् ( ? ) ॥ ८६ ॥ अथ सति माने धर्ममार्गः वाच्य इत्याह । 979 ) प्रोत्तुङ्ग - लुप्त बुद्धिभिनंष्टमतिभिः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः पूज्या गुर्वादयस्तेषां पूजाव्यतिक्रमः उन्नतमानपर्वतशृङ्गस्थितैः । इति सूत्रार्थः ॥ ८७॥ अथ मानसद्भावे विवेकाभाव इत्याह । 980) लुप्यते - पुसां पुरुषाणां विवेकामललोचनं लुप्यते नश्यति । कस्मात् | मानतः । Jain Education International जिनकी बुद्धि कुल, जाति और प्रभुता आदिके मद के मोहसे नष्ट हो चुकी है वे शीघ्र हीच गति कारणभूत कर्मका संचय करते हैं । अभिप्राय यह है कि ज्ञान, पूजा-प्रतिष्ठा, कुल ( पितृपक्ष ), जाति (मातृपक्ष ), बल, धन-सम्पत्ति, अनशनादि तप और शरीरसौन्दर्य आदिके विषय में अभिमान करनेसे प्राणीके जो नीच गोत्र आदि पापकर्मोंका बन्ध होता है उससे वह दुर्गतिके दुखको सहता है || ८५|| हे भव्य ! जब तक तेरे हृदय में अतिशय दृढ मानकी गाँठ विद्यमान है तब तक विवेकरूप मणि प्राप्त होकर भी नष्ट हो जाता है ||८६|| जो अभिमानपूर्ण बुद्धिके धारक मनुष्य अतिशय उन्नत मानरूपी पर्वत के शिखर पर स्थित रहते हैं वे समीचीन पद्धतिका उल्लंघन करके पूज्योंकी - अर्हत्-सिद्धादि परमेष्ठियोंकी - पूजाको नष्ट करते हैं । तात्पर्य यह कि अभिमानी मनुष्य अपने सामने अन्य सबको तुच्छ समझा करता है, इसीलिए वह जो अरिहन्त आदि पूजने के योग्य हैं उनकी भी वह भक्ति-पूजा आदि नहीं करता ||८०|| अभिमानी प्राणीका विवेकरूप निर्मल नेत्र निरन्तर छुपा रहता है । इसीलिये वह शीलरूपी पर्वतशिखरके मार्गसे शीघ्र ही च्युत हो जाता है ॥८८॥ १. All others except P मदविश्वस्त । २. LSEX R दृढस्तदा । ३. All others except P लुप्त for स्तब्ध | ४-५. All others except P मानतः पुंसां वि... प्रच्यवन्ते ततः शीघ्रं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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