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________________ -३७ ] १८. अक्षविषयनिरोधः ३०९ 926 ) दृश्यन्ते भुवि किं न ते कृतधियः संख्याव्यतीताश्चिरं ये लीलां परमेष्ठिनः प्रतिदिनं तन्वन्ति वाग्भिः परम् । तं साक्षादनुभूय नित्यपरमानन्दाम्बुराशिं पुन र्ये जन्मभ्रममुत्सृजन्ति सहसा धन्यास्तु ते दुलेभाः ॥३६ 927 ) दुःप्रज्ञाबललुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशया दृश्यन्ते प्रतिमन्दिरं निजनिजस्वार्थोद्यता देहिनः । आनन्दामृतसिन्धुशीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मज्वरं ये मुक्तेवंदनेन्दुवीक्षणपरास्ते सन्ति द्वित्रा यदि ॥३७ 926 ) दृश्यन्ते-भुवि पृथिव्यां ते मनुष्या अल्पमतयः संख्याव्यतीता असंख्याताश्चिरं चिरकालं किं न दृश्यन्ते, अपि तु दृश्यन्त एव । ये पुमांसः परमेष्ठिनो लीलां निजनिर्वाग्भिः परं यथा स्यात् तन्वन्ति विस्तारयन्ति । तु पुनः । ते धन्या दुर्लभाः नित्यपरमानन्दाम्बुराशिं नित्यपरमहर्षसमुद्रं तं साक्षादनुभूय । पुनः सहसा शीघ्रं जन्मभ्रममुत्सृजन्ति त्यजन्ति इति सूत्रार्थः ॥३६॥ [ मुमुक्षूणां दुर्लभत्वमाह । 927 ) दुःप्रज्ञाबल-दुःप्रज्ञाबललुप्तवस्तुनिचयाः दुष्टबुद्धेः प्रभावेण यैः वस्तुस्वरूपं यथार्थज्ञानं नाशितं ते । जन्मज्वरं जन्मदुःखम् । निर्वाप्य विनाश्य । कैः । आनन्दामृतसिन्धुशीकरचयैः आनन्दरूपामृतसमुद्रबिन्दुसमूहैः इत्यर्थः ॥३७॥ ] किं च चारित्रस्य प्रतिबन्धककषायस्वरूपमाह । जो प्रतिदिन केवल वचनों (व्याख्यानों ) के द्वारा ही परमात्माकी लीलाका विस्तार करते हैं वे बुद्धिशाली जीव क्या पृथिवीपर चिरकाल तक असंख्यात नहीं दिखते हैं ? अवश्य दिखते हैं । परन्तु जो शाश्वतिक एवं उत्कृष्ट आनन्दके समुद्रस्वरूप उस परमात्माका स्वयं प्रत्यक्षमें अनुभव करके संसारपरिभ्रमणका परित्याग करते हैं-मोक्षमार्गमें प्रवृत्त होते हैं वे ही प्रशंसनीय हैं और वे अतिशय दुर्लभ हैं। तात्पर्य यह कि अपनी बुद्धिकी तीव्रतासे परमात्माका रोचक ढंगसे व्याख्यान करनेवाले तो बहुत हैं, परन्तु उसका स्वयं अनुभव करके उसी स्वरूपकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करनेवाले बहुत थोड़े हैं । परन्तु प्रशंसाके पात्र वस्तुतः वे ही हैं ॥३६॥ जिन्होंने दुष्ट बुद्धिके प्रभावसे वस्तुसमूहके यथार्थ स्वरूपको नष्ट कर दिया है-अर्थात् जो दुष्ट बुद्धिसे वस्तुस्वरूपका अन्यथा व्याख्यान करते हैं, जिनका हृदय विवेकज्ञानसे रहित है, तथा जो अपने-अपने स्वार्थ के सिद्ध करने में सदा प्रयत्नशील रहते हैं; ऐसे प्राणी तो प्रत्येक घरमें देखे जाते हैं वे बहुत अधिक हैं। परन्तु जो आनन्दरूप अमृतसमुद्रके जलबिन्दु समूहोंके द्वारा संसाररूप ज्वर ( ताप ) को शान्त करके मुक्ति रूप लक्ष्मीके मुँहके देखने में उद्यत हो रहे हैं वे यदि हैं तो दो तीन ही सम्भव हैं-अधिक सम्भव नहीं है ।। ३७॥ १. All others except P ते ऽल्पमतयः....°ष्ठिनो निजनिजैस्तन्वन्ति । २. T Rends here प्रकरण । ३. Only in P | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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