SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना २१ इस परिस्थितिको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि सम्यमें विवेचनीय विषयोंका विवेचन निर्दिष्ट प्रकरणों के अनुसार नहीं हुआ है । यहाँ चर्चित विषय जहाँ-तहाँ विखरा हुआ है। इसी से मेरी यह कल्पना है कि निर्दिष्ट प्रकरणोंका विभाजन स्वयं ग्रन्थकारके द्वारा नहीं किया गया है। उन्हें तो जहाँ जब जो भी वर्णनीय प्रतीत हुआ उसका वे वर्णन करते चले गये हैं। ग्रन्थका कुछ भाग सुभाषित जैसा रहा है, इससे पुनरुक्ति भी अधिक हुई है । ४. संस्कृत टीका और टीकाकार प्रस्तुत संस्करण के साथ जो संस्कृत टीका प्रकाशित है वह पं. नवविलासके द्वारा रची गयी है। टीका बहुत संक्षिप्त व साधारण है । अध्येता उसके आश्रयसे ग्रन्यके अभिप्रायके समझने में कठिनाई ही अनुभव करेगा । विवक्षित श्लोककी टीका करते हुए टीकाकारने खण्डान्वयका अनुसरण कर 'कथंभूतम्' आदि कुछ प्रश्नार्थक पदों के निर्देशपूर्वक प्रायः श्लोकगत उन्हीं पदोंकी पुनरावृत्ति कर दी है, किसी भी श्लोकका भाव प्रायः उन्होंने स्पष्ट नहीं किया । यथा जयन्ति जिनसेनस्य वाचस्त्रविद्ययन्दिताः । योगिभिर्याः समासाद्य स्खलितं नात्मनिश्चये ॥ इस (१-१६) श्लोककी टीका इस प्रकार की गयी है - 'जिनसेनस्य वाचः जयन्ति । कथंभूताः वाचः ? विद्यवन्दिताः त्रयाणां विदां समाहारः वैविदी, तस्या भावः विद्यम् तेन वन्दिताः । लक्षण-साहित्यतर्कवेदिभिर्वन्दिता मनोवाक्कायनमस्कृता वा योगिभिर्या वाचः समासाद्य प्राप्य आत्मनिश्चये आत्मानुभवे न स्खलितं न व्यपस्थितम् । दूसरा एक उदाहरण लीजिए - अलक्ष्यं लक्ष्यसंबन्धात् स्थूलात् सूक्ष्मं विचिन्तयेत् । सालाम्बाच्च निरालम्बं तत्यति स्वसा ||1620 टीका-तत्त्वविदञ्जसा सुखेन तत्त्वं विचिन्तयेत् । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः । टीकाकारकी दृष्टिमें 'अञ्जसा' मात्र दुरवबोध रहा, इसीलिए उसका अर्थ 'सुखेन' कर दिया। शेषको 'सुगमम्' कहकर छोड़ दिया। इस प्रकारसे वस्तुतः श्लोकका अभिप्राय कुछ भी स्पष्ट नहीं हुआ है। टीकाकारकी यही पद्धति प्रायः सर्वत्र रही है । आगरा के निवासी पं. नयविलास दि. जैन विद्वान् थे । वे जम्बूस्वामिचरित, लाटीसंहिता, अध्यात्मकमल-मार्तण्ड और पंचाध्यायी के कर्ता पं. राजमहल के समकालीन रहे हैं। प्रस्तुत ज्ञानार्णवकी टीका उन्होंने साहु टोडरके ज्येष्ठ पुत्र ऋषिदासकी प्रार्थनापर की है। इसकी सूचना टीकाके प्रारम्भमें स्वयं पं. नयविलासने कर दी है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थगत प्रत्येक प्रकरणके अन्त में उपलब्ध टीकाके अन्तिम पुष्पिका बाक्योंसे भी यही सूचना प्राप्त होती है । Jain Education International द्वितीय प्रकरण ( द्वादश भावनाः) के प्रारम्भमें टीकाको शुरू करते हुए जो तीन श्लोक कहे गये हैं। (देखिए पृ. २३) उनमें यह निर्देश किया गया है कि सद्धर्म-धौरेय पार्श्व ( साहु पासा) पूर्वज हुए । उनके उदार वंश में सूर्य के समान उत्तम धर्मका परिपालक टोडर हुआ । उसी वंश में जीवाजीव पदार्थों के स्वरूपका ज्ञाता नामसे साह ऋषिदास (टोडरका पुत्र) हुआ। उसको प्रेरणासे नयविलासने ज्ञानार्णवकी प्रसिद्ध प्रकट विवृति की। धावकाचार रूप समुद्रको वृद्धिंगत करने के लिए चन्द्रमण्डल समान वह टोडरका पुत्र ऋषिदास चिरजीवी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy