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________________ ई ४१ ] १६. परिग्रहदोषविचारः तत्प्रागेव विचार्य वर्जय 'वरं व्यामूढवित्तस्पृहां कास्पदतां न यासि विषयं पापस्य तापस्य च ॥४० 863 ) एवं तावदहं लभेय विभवं रक्षेयमेवं ततस्तद्वृद्धिं गमयेयमेवमनिशं भुञ्जीय चैवं पुनः । इत्याशारसरुद्धमानसभृशं नात्मानमुत्पश्यसि क्रुध्यत्क्रूरकृतान्तदन्तपटलीयन्त्रान्तरालस्थितम् ||४१ कोशेन केन | धनप्रसक्तमनसा धनव्याप्तचित्तेन । कः पुमान् तस्य द्रव्यस्य अर्जनमुपार्जनं, रक्षणं पालनम्, क्षयः हानि:, [ आसादि ] प्राप्तम् । येन कारणेन पापस्य एकास्पदतां न यासि । च पुनः । तापस्य विषयं न यासि । इति सूत्रार्थः ||४०|| अथ सर्वसंगपरित्यागे फलमाह । २८९ 863 ) एवं तावदहं — रे जीव, भृशमत्यर्थम् । इत्याशारसरुद्धमानसः इतिवाञ्छा रस रन्धित( ? ) चित्तः आत्मानं नोत्पश्यसि । इतीति किम् । एवं तावत् अहं द्रव्यं लभेय लभिष्ये ( ? ) 1 एवम् अमुना प्रकारेण भुजीय भुजिष्ये । कीदृशमात्मानम् । क्रुद्धक्रूरकृतान्तदन्तपटली यन्त्रान्तरालस्थितं कुपितरौद्रमृत्युदंष्ट्रा समूहयन्त्रमध्यस्थितमिति सूत्रार्थः ॥ ४१ ॥ पापका उपार्जन नहीं हुआ है ? अर्थात् वे हिंसा आदि अनेक पापकार्यों को करके अशुभ कर्म - को उपार्जित करते हैं । तथा उस धनमें अनुराग रखनेवाला कौन-सा मनुष्य उसके उपार्जन, रक्षण और नाशसे उत्पन्न हुए दुःखरूप अग्निसे सन्तप्त नहीं हुआ है ? सब ही धनानुरागी उसके अर्जन आदिके कारण दुःखी होते हैं। इसलिए हे मूर्ख ! तू पहले ही इसका भलीभाँति विचार करके उस धनकी इच्छाको छोड़ दे। इसका परिणाम यह होगा कि तू विषयोंके साथ पाप और सन्तापका एक स्थान नहीं बनेगा ||४०|| Jain Education International पहले मैं इस प्रकार से विभूतिको प्राप्त करूँगा, फिर उसका इस प्रकार से रक्षण करूँगा, पश्चात् उसको इस प्रकारसे वृद्धिको प्राप्त कराऊँगा और उसके पश्चात् निरन्तर उसका इस प्रकार से उपभोग करूँगा; इस प्रकारकी आशारूप रसके द्वारा जिसका मन रोका गया है - इस विषयतृष्णाके वश होकर जो विवेकसे रहित हो चुका है - ऐसा हे भव्य ! तू अपने आपको क्रोधको प्राप्त हुए दुष्ट यमराज के दाँतोंके समूहरूप यन्त्रके मध्य में स्थित नहीं देखता है । अभिप्राय यह है कि प्राणीको धनके उपार्जन आदिकी इच्छा उत्तरोत्तर बढ़ती ही है, वह कम नहीं होती । और इस बीच आयुके क्षीण हो जाने पर वह मरणको प्राप्त होकर आत्महितसे सर्वथा वंचित ही रह जाता है ॥ ४१ ॥ १. L परं । २. L विषये, SFVXYR विषयैः । ३. P भुञ्जीयमेवं । ४. SVY द्रव्याशारस । ३७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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