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________________ २८६ ज्ञानार्णवः [१६.३२ 852 ) सर्वसंगविनिर्मुक्तः संवृताक्षः स्थिराशयः । धत्ते ध्यानधुरां धीरः संयमी वीरवर्णिताम् ॥३२ 853 ) संगपङ्कात्समुत्तीर्णो नैराश्यमवलम्बते । ततो नाक्रम्यते दुःखैः पारतन्त्र्यैः क्वचिन्मुनिः ॥३३ 854 ) विजने जनसंकीर्णे सुस्थिते दुःस्थिते ऽपि वा । सर्वत्राप्रतिबद्धः स्यात्संयमी संगवर्जितः ॥३४ 852 ) सर्वसंग-संयमी ध्यानधुरां धत्ते । कीदृशो धीरः । निःप्रकम्पः । पुनः कीदृशः। सर्वसंगविनिर्मुक्तः सर्वपरिग्रहरहितः । पुनः कीदृशः । संवृताक्षः गुप्तेन्द्रियः । स्थिराशयः स्थिरचित्तः। पुनः कीदृशां धुराम् । वीरवणितां सुभटश्लाघ्याम् । इति सूत्रार्थः ॥३२॥ अथ संगपरित्यागात्सुखी भवतीत्याह । 85 3 ) संगपङ्कात-मुनि राश्यं निराशतामवलम्बते। कीदृशः। संगपङ्कात् समुत्तीर्णः । सुगमम् । ततो नैराश्यात् दुःखेनाक्रम्यते व्याप्नोति । कीदृशैः दुःखैः। पारतन्त्रैः कर्मजनितैः क्वचित् । इति सूत्रार्थः ॥३३॥ अथ पुनः संगत्यागे गुणमाह। ____854 ) विजने जन-संयमी संगवर्जितः सर्वत्राप्रतिबद्धः मायारहितः स्यात् । क्व । विजने जनरहितस्थाने । अप्रतिबद्धः इति सर्वत्र योज्यम् । जनसंकीर्ण लोकव्याप्तस्थाने । सुस्थिते सातावस्थायाम् । दुःस्थिते दुःखावस्थायामपि । वा विकल्पार्थः । इति सूत्रार्थः ॥३४॥ अथ धनवतां सर्वत्र दुःखमाह। जो धीर-वीर साधु सम्पूर्ण परिग्रहसे ममत्वको छोड़ चुका है वह इन्द्रियों का निग्रह करता हुआ स्थिर अभिप्रायके साथ वीरजिनेन्द्रके द्वारा प्ररूपित ध्यानके भारको धारण करता है ॥३२॥ जो मुनि परिग्रहरूप कीचड़के पार हो चुका है वह चूंकि निराशताका आश्रय ले लेता है-उसकी सब विषयवांछा नष्ट हो जाती है-इसीलिए वह पराधीनतारूप दुःखके आक्रमणका विषय नहीं होता। तात्पर्य यह कि जो परिग्रहके मोहसे रहित हो जाता है वह सब प्रकारके दुःखोंसे रहित होकर स्वाधीन अनुपम सुखका अनुभव करता है ।॥३३॥ - जो मुनि परिग्रहकी ममताको छोड़कर निःस्पृह हो जाता है वह चाहे जनसे शून्य वन आदि एकान्त स्थानमें अवस्थित हो और चाहे जनसमुदायसे व्याप्त किसी नगर आदिमें अवस्थित हो, तथा इसी प्रकारसे वह चाहे दुःखको अवस्थामें हो और चाहे सुखकी अवस्था में हो; वह सब ही अवस्थाओंमें प्रतिबन्धसे रहित होता है-वह सर्वत्र स्वाधीन सुखका ही अनुभव करता है ॥३४॥ १. Before this verse x Reads (V. Nos.) ३८१ & *२। २. M N सर्वत्राप्रतिबन्धः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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