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________________ -२४] १६. परिग्रहदोषविचारः २८३ 841 ) सर्वसंगपरित्यागलक्षणः श्रीजिनागमः । यस्तमेवान्यथा व्रते स हीनः स्वान्यघातकः ॥२१ 842 ) यमप्रशमजं राज्यं तपःश्रुतपरिग्रहम् । योगिनो ऽपि विमुञ्चन्ति वित्तवेतालपीडिताः ।।२२ 813 ) पुण्यानुष्ठानजातेषु निःशेषाभीष्टसिद्धिषु ।। कुर्वन्ति नियतं पुंसां प्रत्यहं वित्तवैरिणः ।।२३ 844 ) अत्यक्तसंगसंतानो मोक्तुमात्मानमुद्यतः । बध्नन्नपि न जानाति स्वं धनैः कर्मबन्धनैः॥२४ 841 ) सर्वसंग-यः पुमान् । तं सर्वसंगपरित्यागमन्यथा ब्रूते । स हीनः स्वान्यघातकः स्वस्यान्यस्य [च ] घातकः इत्यर्थः। शेषं सुगमम् ॥२१॥ अथ वित्तस्य सर्वधर्मानुष्ठानाभावत्वमाह। 842 ) यमप्रशमनं योगिनो ऽपि यमप्रशमनं व्रतक्षान्तिनं । राज्यं तपःश्रुतपरिग्रहं विमुञ्चन्ति । कीदृशा योगिनः। वित्तवेतालपीडिताः धनराक्षसाक्रान्ता।। इति सूत्रार्थः ॥२२॥ अथ पुण्यानुष्ठानस्याभावो सति परिग्रहे भवतीत्याह । ___843 ) पुण्यानुष्ठान-धनसंग्रहाः पुंसां नियतं निश्चितं प्रत्यूह विघ्नं कुर्वन्ति । केषु । पुण्यानुष्ठानजातेषु पुण्यकर्तव्यसमूहेषु । कीदृशेषु । निःशेषाभीष्टसिद्धिषु सर्ववाञ्छितसिद्धिषु । इति सूत्रार्थः ।।२३।। अथ मुक्तकामस्यापि संगे दुस्त्यजत्वमाह। 844 ) अत्यक्त-आत्मानं मोक्तुम् उद्यतः सावधानो यः बध्नन्नपि स्वं न जानाति । कैः । अतिशय भयभीत करनेवाले परीषहरूप शत्रुओंके समूहको देखकर धैर्यको छोड़ देते हैं। अभिप्राय यह है कि जो मुनि होकर भी परिग्रह में अनुराग रखते हैं वे संयममें परिपूर्ण न होनेसे परीषहों के जीतने में असमर्थ रहा करते हैं ॥२०॥ समस्त परिग्रहका त्याग, यह श्री जिन भगवान के द्वारा प्ररूपित आगम का लक्षण है। फिर उसे जो मूर्ख अन्यथा-हिंसाका पोषक बतलाता है वह अपनेको तो नष्ट करनेवाला है ही, साथमें वह उन अन्य प्राणियोंको भी नष्ट करनेवाला है जो उस कल्पित आगमका अभ्यास आदि करते हैं ॥२१॥ धनरूप पिशाचसे पीड़ित होकर योगीजन भी संयम और प्रशमसे उत्पन्न होकर तप व आगमरूप परिग्रहसे परिपूर्ण हुए राज्यको छोड़ देते हैं। तात्पर्य यह है कि धनके मोहसे बड़े-बड़े योगी भी संयम, प्रशम, तप और आगम ज्ञानसे भ्रष्ट हो जाते हैं ।।२२।। धनरूप वैरी मनुष्योंके पवित्र अनुष्ठान से उत्पन्न हुई सभी अभीष्ट सिद्धियोंके विषय में नियमसे विघ्न किया करते हैं ॥२३॥ जिसने परिग्रहकी परम्पराको तो नहीं छोड़ा है-उससे जिसका अनुराग बना हुआ १. M N L T F JY त्यागः कीर्तितः श्रो, svx R कीर्त्यते । २. All others except P श्रीजिनागमे । ३. All others except P धनसंग्रहा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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