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ज्ञानार्णवः
780) हीनाचरणसंभ्रान्तो वृद्धो ऽपि तरुणायते । तरुणो ऽपि सतां धत्ते श्रियं 'सत्संगवासितः ||१० 781 ) विद्धि वृद्धानुसेवेयं मातेव हितकारिणी । विनेत्री वागवाप्तानां दीपिकेवार्थदर्शिनी ॥११ 782 ) कदाचिद्दैववैमुख्यान्मातापि विकृतिं व्रजेत् । न देशकालयोः क्वापि वृद्धसेवा कृता सती ॥१२
780) होनाचरण - होनाचरणसंभ्रान्तो वृद्धो ऽपि तरुणायते तरुण इव आचरते । तरुणोSपि सतां श्रियं धत्ते । कोदृशः । सत्संगवासितः सत्संगव्याप्तः । इति सूत्रार्थः ॥१०॥ अथ वृद्धसेवायाः फलमाह ।
[ १५.१०
781 ) विद्धि - इयं वृद्धानुसेवा साक्षात् * माता इव । कीदृशी । हितकारिणी । पुनः कोदृशी । आप्तानां सर्वज्ञानां वागिव वाणीव । कीदृशी । विनेत्री । पुनः कीदृशी । दीपिकेव अर्थदर्शिनी । इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ अथ पुनर्वृद्धसेवाफलमाह ।
782 ) कदाचित् - देशकालयोविषये वृद्धसेवा कृता सती क्वापि विकृति विकारं न भजेदिति सूत्रार्थः ||१२|| अथ कस्यचिद्वाणीदोषमाह ।
जो हीन आचरणसे व्याकुल है वह अवस्थामें वृद्ध होकर भी युवक के समान आचरण करता है - उसे युवक ( जवान ) ही समझना चाहिए। इसके विपरीत जो साधु जनकी संगति में रहकर उत्तम संस्कारको प्राप्त है वह अवस्थामें युवा होकर भी सत्पुरुषोंकी लक्ष्मीको धारण करता है - उसे युवा होनेपर भी वृद्ध समझना चाहिए ॥१०॥
यह वृद्धसेवा माताके समान हित करनेवाली, आप्तकी वाणीके समान विनयशील बनाने वाली ( या शिक्षा देनेवाली ) और दीपकके समान पदार्थोंके स्वरूपको दिखलानेवाली है ||११||
दैवके विपरीत होनेपर कदाचित् माता तो विकारको प्राप्त हो सकती है - वह अपनी हितकरताको छोड़ भी सकती है, परन्तु विधिपूर्वक की गयी वह वृद्धसेवा किसी भी देश और किसी भी कालमें विकारको नहीं प्राप्त होती है-वह सदा और सर्वत्र ही प्राणीका हित किया करती है ||१२||
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१. N तत्सङ्गवासितः । २. All others except P साक्षाद्वृद्धां । ३. All others except PM भजेत् ।
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