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________________ XIV [ संसर्गः ] 726 ) विरज्याशेषसंगेभ्यो यो वृणीते शिवश्रियम् । स क्रुद्धाहेरिव स्त्रीणां संसर्गाद्विनिवर्तते ॥ १ 727 ) यथा सद्यो विदार्यन्ते गिरयो वज्रताडिताः । तथा मत्ताङ्गनापाङ्गप्रहारेणाल्पचेतसः ॥ २ 728 ) यस्तपस्वी व्रती मौनी संवृतात्मा जितेन्द्रियः । कलङ्कयति निःशङ्कः स्त्रीसखः सो ऽपि संयमम् ||३ 3 726) विरज्याशेष - यो शेष संगेभ्यः समस्तपरिग्रहेभ्यो विरज्य विरक्तीभूय शिवश्रियं वृणुते स्त्रीणां संसर्गाद्विनिवर्तते । कस्येव । क्रुद्धा हेरिव । यथा क्रुद्धाः कुपितसर्पस्य संगाद्विनिवर्तते तथेत्यर्थः ॥ १ ॥ अथ कटाक्षस्वरूपमाह । 727) यथा सद्यः - मदोन्मत्तस्त्रीकटाक्षप्रहारेणाल्पचेतसः विलीयन्ते । इति सूत्रार्थः । शेषं सुगमम् ||२|| अथ स्त्रीसंसर्गात्संयमं कलङ्कं दत्ते तमाह । 728) यस्तपस्वी-संवृतात्मा अशुभव्यापारात् । शेषं सुगमम् ||३|| अथ तपस्विनो stङ्गनासंसर्गादपायमाह । जो समस्त परिग्रहसे रहित होकर मुक्तिरूपी लक्ष्मीका वरण करता है वह प्रचण्ड सर्प के समान भयानक स्त्रियोंके संसर्गसे दूर रहता है ||१|| जिस प्रकार से ताड़ित होकर पर्वत शीघ्र नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार मदसे उन्मत्त स्त्रियोंके कटाक्षोंके प्रहार से मन्दबुद्धि जन भी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं - उनके वशीभूत हो जाते हैं ||२|| Jain Education International जो तपश्चरण में तत्पर है, व्रतोंका परिपालन करता है, मौनको धारण करता है, सावद्य प्रवृत्ति से रहित है तथा इन्द्रियोंको वशमें रखता है; वह भी निर्भय होकर स्त्रीके अनुराग से संयमको कलंकित कर डालता है || ३ || १. All others except P विलीयन्ते । Y R निःशङ्कं । २. J B interchange Nos. 2-3 | ३. SFVJ X For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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