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________________ २४६ ज्ञानार्णवः 722 ) उक्तं च उत्तानोच्छूनमण्डूकदारितोदरसंनिभे । चर्मखण्डे मनुष्याणामपूर्वः को प्यसद्ग्रहः || २२* ९१ ॥ इति । 723 ) [ 'नारीजघनरन्ध्रस्थविण्मूत्रमयचर्मणा । [ १३.२२*१ वराह व विभक्षी हन्त मूढः सुखायते ॥ २२२ ॥ इति । ] 724 ) सर्वाशुचिमये काये दुर्गन्धामेध्यसंभृते । रमन्ते रागिणः स्त्रीणां विरमन्ति तपस्विनः ||२३ 725 ) कुथितकुणिर्पगन्धं योषितां योनिरन्धं कृमिकुलशतं पूर्णं निर्झर्रत्क्षारवारि । 722 ) उत्तानोच्छून - असद्ग्रहः कदाग्रहः । शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥२२२॥ [ अत्र स्त्रीशरीरस्य अभिलाषिणो मूढतामाह । 723 ) नारीजघन - मूढो जनः सुखायते सुखमनुभवति । केन । नारीजघनरन्ध्रस्थचर्मणा । कीदृशं तत् । विण्मूत्रमयं विष्ठया मूत्रेण च परिपूर्णम् । क इव । विड्भक्षो वराहः सूकरः इव ॥२२२॥ अथ स्त्रीशरीरस्य हेयत्वमाह । Jain Education International 724 ) सर्वाशुचिम - विरमन्ति विरक्ता भवन्तीत्यर्थः । शेषं सुगमम् ||२३|| अथ स्त्रीणामङ्गानि निन्द्यानीत्युपसंहरति । 725 ) कुथित - मुनिनिकायः यतिसमूहः योषितां योनिरन्धं त्यजति । कीदृशं योनिरन्ध्रम् । * कुथित कुणपगन्धं शटन्मांस दुर्गन्धम् । पुनः कीदृशम् । * कृमिकुलशतकीर्णं सुगमम् । पुनः कीदृशम् । कहा भी है उलटा करके सड़े गले मेंढकके उदरको चीरनेपर जो स्वरूप उसका होता है वही स्वरूप (स्वभाव) स्त्रियोंके चर्मखण्ड अर्थात् चमड़े के अंशभूत योनिप्रदेशका भी है । फिर भी मनुष्योंका उसके विषय में कोई अपूर्व ही दुराग्रह है || २२ - १ | [जिस तरह विष्ठा खानेवाला सूकर अपनेको सुखी मानता है, उसी तरह मूर्ख मनुष्य स्वेयोंके जघनबिलके विष्ठा और मूत्रसे भरे हुए चमड़ेसे सुखका अनुभव लेता है ।।२२-२||] समस्त अपवित्र वस्तुओंसे निर्मित तथा दुर्गन्ध एवं घृणाके स्थानभूत मल-मूत्रादिसे परिपूर्ण स्त्रियोंके शरीर में रागीजन ही अनुराग करते हैं साधु जन तो उससे विरक्त रहते हैं ||२३|| सड़े-गले निर्जीव शरीर (मुर्दा) के समान दुर्गन्धवाला जो स्त्रियोंका योनिछिद्र कीड़ों के सैकड़ों समूहों से परिपूर्ण होकर क्षार जलको छोड़ा करता है उसका परित्याग वह मुनिसमूह १. PM LY उक्तं च । २. All others except P चर्मरन्ध्रे । ३. P इति । ४. Only in MN । ५. M दुर्गन्धे ऽमेध्य | ६. All others except P कुणप । ७ Y कृमिशतकुल । ८ M निर्भरक्षार । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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