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________________ XIII [ मैथुनम् ] 700 ) स्मरज्वलनसंभ्रान्तो यः प्रतीकारमिच्छति । ___मैथुनेन स दुर्बुद्धिराज्येनाग्नि निषेधति ।।१ 701 ) वरमाज्यच्छटोनद्धः परिरब्धो हुताशनः । न पुनदु गतेारं योषितां जघनस्थलम् ॥२ 700 ) स्मरज्वलन-यो मनुष्यः स्मरज्वलनसंभ्रान्तः कन्दग्निसंभ्रान्तः प्रतीकारं तच्छमनोपायम् इच्छति । केन । मैथुनेन । स दुर्बुद्धिः, आज्येन घृतेनाग्नि निषेधयति उपशमयति । इति सूत्रार्थः ॥१॥ अथ तासामालिङ्गनं निषेधयति । 701 ) वरमाज्य-हताशनो ऽग्निः परिरब्धो आलिङ्गितो वरम् । कोदशो हुताशनः । आज्यच्छटासिक्तः* घृतच्छटासिक्तः । योषितां जघनस्थलं न पुनः परिरब्धव्यम् आलिङ्गितव्यम् । कीदृशं जघनस्थलम् । दुर्गतिद्वारम् । इति सूत्रार्थः ॥२॥ अथ तासां पङ्कत्वमाह । जो कामरूप अग्निसे व्याकुल होकर उसका प्रतीकार मैथुन क्रियासे करना चाहता है वह मूर्ख घीके द्वारा अग्निको रोकता है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार घीके डालनेसे अग्नि कभी शान्त नहीं होती है, बल्कि अधिकाधिक प्रज्वलित ही होती है उसी प्रकार विषयसेवनसे कभी कामकी बाधा शान्त नहीं होती है, बल्कि वह उत्तरोत्तर वृद्धिंगत ही होती है ।।१।। घीके समूहसे सींची गयी अग्निका आलिंगन करना तो अच्छा है, किन्तु नरकादि दुर्गतिके द्वारभूत स्त्रियोंके जघनस्थानका आलिंगन करना अच्छा नहीं है । विशेषार्थ-तात्पर्य यह है कि स्त्रीसम्भोग घीकी आहुतिसे प्रज्वलित हुई अग्निकी अपेक्षा भी भयानक है। कारण यह कि अग्निसे जला हुआ प्राणी तो उसी भवमें कष्ट पाता है तथा कदाचित् योग्य औषधि आदिके उपचारसे वह उस भवमें भी उसके कष्टसे मुक्त हो जाता है, परन्तु स्त्रीसम्भोगसे उत्पन्न पापके कारण प्राणी अनेक भवोंमें दुर्गतिके कष्टको भोगता है तथा उसका कोई प्रतीकार भी सम्भव नहीं है ।।२।। १. All others except P छटासिक्तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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