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________________ २३८ ज्ञानार्णवः [१२.५६ 696 ) यमिभिर्जन्मनिर्विण्णैर्दूषिता यद्यपि स्त्रियः । तथाप्येकान्ततस्तासां विद्यते नाघसंभवः ॥५६ 697 ) ननु सन्ति जीवलोके काश्चिच्छमशीलसंयमोपेताः। निजवंशतिलकभूताः श्रुतसत्यसमन्विता नार्यः ॥५७ 698 ) सतीत्वेन महत्त्वेन वृत्तेन विनयेन च । विवेकेन स्त्रियः काश्चिद् भूषयन्ति धरातलम् ।।५८ नरकमहल्लप्रतोलीम् । पुनः कोदशीम् । मदनभुजगदंष्ट्राम् । सुगमम् । पुनः कीदशीम् । मोहतन्द्रासवित्रीम् । सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥५५॥ अथवा । अथ पुनस्तासां त्यागमाह । 696 ) यमिभिः -तथापि तासाम् अघसंचयः [ पाप ] संग्रहो ऽद्य न विद्यते । शेषं सुगमम् ॥५६॥ अथ कासां शोलत्वमाह। ___697 ) ननु सन्ति-क्रोधाभावाचारसंयमोपेताः । शेष सुगमम् ॥५७॥ अथ कासांचित् गुणानाह। ____698 ) सतीत्वेन-वृत्तेनाचारेण, विनयेन भक्त्या। शेषं सुगमम् । इति सूत्रार्थः ॥५८॥ अथ काश्चिन्मुनिभिर्नन्दिता न निन्द्याः। ( भीतर जानेका मार्ग) है, कामरूप सर्पकी विषैली दाढ़के समान है, तथा मोह व आलस्यकी माता है; उसको हे भव्य, तू परिणामोंकी स्थिरताका आश्रय लेकर छोड़ दे ॥५५।। अथवा-यद्यपि संसारसे विरक्त हुए मुनियोंने स्त्रियोंको दोषयुक्त बतलाया है तो भी उनके सर्वथा ही पापकी सम्भावना नहीं है। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि यहाँ जो स्त्रियोंको अनेक दोषोंसे दूषित बतलाया गया है उससे सभी स्त्रियोंको नियमतः दोषयुक्त नहीं समझ लेना चाहिए । कारण कि उन स्त्रियों में अनेक स्त्रियाँ ऐसी भी होती हैं जो अपनी सदाचार प्रवृत्तिसे दोनों कुलोको उज्ज्वल करती हैं। यहाँ जो उनकी विशेष निन्दा की गयी है वह केवल विषयभोगोंसे विरक्त करानेके उद्देश्यसे की गयी है। इसी अभिप्रायको ग्रन्थकार आगे स्वयं व्यक्त करते हैं ॥५६।। __ संसार में निश्चयसे कुछ ऐसी भी स्त्रियाँ हैं जो शम ( शान्ति ), शील (पातिव्रत्य ) एवं संयमसे विभूषित तथा आगमजान व सत्यसे संयुक्त हैं। ऐसी स्त्रियाँ अपने वंशकी तिलक मानी जाती हैं-जिस प्रकार तिलक उत्तम अंगस्वरूप मस्तकके ऊपर विराजमान होता है और उससे समस्त शरीरकी शोभा बढ़ जाती है उसी प्रकार उपर्युक्त स्त्रियोंके द्वारा उनके कुलकी भी शोभा बढ़ जाती है ।।५७।। कितनी ही स्त्रियाँ पातिव्रत्य, महानता, सदाचरण, विनय और विवेकके द्वारा इस पृथिवीतलको विभूषित करती हैं ॥५८।। १. L F VJ नाघसंचयः । २. FV सत्त्व । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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