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________________ २३१ - ५५] १२. स्त्रीस्वरूपम् 603 ) धीर धैर्य समालम्ब्य विवेकामललोचनैः । त्यक्ताः स्वप्ने ऽपि निःशङ्कर्नार्यः श्रीसू रिपुंगवैः ॥५३ 694 ) यद्वक्तं न बृहस्पतिः शतमखः श्रोतं न साक्षात्क्षम स्तत्स्त्रीणामगुणव्रजं निगदितुं मन्ये न को ऽपि प्रभुः । आलोक्यं स्वमनीषया कतिपयैवर्णैर्यदुक्तं मया तच्छ त्वा गुणिनस्त्यजन्तु वनितासंभोगपापग्रहम् ॥५४ 695 ) परिभवफलवल्लीं दुःखदावानलालीं विषयजलधिवेलां श्वभ्रसौधप्रतोलीम् । मदनभुजगदंष्ट्रां मोहतन्द्रासवित्री परिहर परिणामस्थैर्यमालम्ब्य नारीम् ॥५५॥अथवा___693 ) धीर धैर्य-श्रीसूरिपुङ्गवैः श्रोसूरिवरैः। शेषं सुगमम् ।।५३।। अथ तासां दोषान् वक्तुन को ऽपि समर्थ इत्याह । ____694 ) यद्वक्तुं-तत् स्त्रीणाम् अगुणव्रजं दोषसमूहं निगदितु कथयितुन कः प्रभुः समर्थः । अहं मन्ये । यत् अगुणवजं वक्तु बृहस्पतिः न क्षमः । यत् अगुणव्रजं स्वमनीषया स्वबुद्धया आलोक्य कतिपयैर्वणः मया अत्रोक्तम् । तत् अगुणवजं श्रुत्वा हे गुणिनः त्यजन्तु वनितासंभोगपापग्रहम् । इति सूत्रार्थः ॥५४॥ अथ तासां परित्यागमाह । मालिनी। 695 ) परिभव-हे भव्य, परिणाम:* नारों स्त्रियं परिहर त्यज। कीदृशीं नारीम् । परिभवफलवल्ली पराभवफललताम् । पुनः कोदशीम् । दुःखदावानलालों दुःखदावाग्निश्रेणीम् । पुनः कीदृशीम् । विषयजलधिवेलाम् इन्द्रियविषयसमुद्रवेलाम् । पुनः कोदृशोम् । श्वभ्रसौधप्रतोली हे धीर ! विवेकरूप निर्मल नेत्रोंके धारक श्रेष्ठ आचार्योंने निर्भय होकर धैर्य के आश्रयसे उन स्त्रियोंका स्वप्नमें भी परित्याग कर दिया है ॥५३॥ स्त्रियोंके जिस दोषसमूहका वर्णन करनेके लिए साक्षात् बृहस्पति समर्थ नहीं है तथा जिसके सुननेके लिए साक्षात् इन्द्र भी समर्थ नहीं है उसका वर्णन करने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है, ऐसा मैं मानता हूँ। फिर भी अपनी बुद्धि के अनुसार उनके उस दोषसमूहको देखकर मैंने जो कुछ वर्षों के आश्रयसे उसका कथन किया है उसको सुनकर गुणीजन स्त्रीके सम्भोगरूप क्रूर ग्रहको छोड़ दें ॥५४॥ जो स्त्री तिरस्काररूप फलको उत्पन्न करनेके लिए बेलके समान है, दुःखरूप वनाग्निकी पंक्ति है, विषयभोगरूप समुद्रकी वेला ( किनारा) है, नरकरूप प्रासादकी प्रतोली १. All others except PN धीरेधैर्य । २. M त्यक्त्वा । ३. S T F V X Y R निःसॉर्नार्यः, MNJ निःकम्पै । ४. M N आलोच्य स्व। ५. LT परिणामैः स्थैर्य, S F VJX Y R परिणामैधुर्य । ६. PMLFY अथवा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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