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________________ १७२ ज्ञानार्णवः [८.८ 180 ) मृते वा जीविते वा स्याजन्तुजाते प्रमादिनाम् । बन्ध एव न बन्धः स्याद्धिंसया' संवृतात्मनाम् ।।८ 481 ) संरम्भादित्रिकं योगैः कषायैाहतं क्रमात् । शतमष्टाधिकं ज्ञेयं हिंसाभेदैस्तु पिण्डितम् ॥९ 480 ) मृते वा-प्रमादिनां जन्तुजाते । वेति पक्षान्तरे। मृते जीविते वा बन्ध एव भवति हिंसायां* प्राणिवधे संवृतात्मनां न बन्धः। तत्कारणस्य कषायादेरभावात् । इति सूत्रार्थः ॥८॥ अथ हिंसाभेदानाह । ____481 ) संरम्भादि-शतमष्टाधिकं ज्ञेयम् । कि तत् । संरम्भादित्रिक संरम्भसमारम्भआरम्भत्रयम् । तत्र संरम्भः प्राणिवधादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावेशः। तत्साधनसमभ्यासीकरणं समारम्भः । प्रक्रम आरम्भः । एतत्त्रयेषु क्रमात् योगैमनोवचनकार्याहतं, कषायैः क्रोधमानमायालोभैाहतम् । तु पुनः । कीदृशम् । हिंसाभेदैः पिण्डितम् एकत्र कृतम् । तत्कर्म कृतकारितानुमोदत्रयं योगत्रययुक्तं क्रोधादिचतुष्कमिलितं भेदात्मकं भवति । तथा हि। कृतमनःक्रोधसंरम्भः कारितमनःक्रोधसंरम्भः अनुमोदितमनःक्रोधसंरम्भः, कृतमनःक्रोधसमारम्भः कारितमनःक्रोधसमारम्भः अनुमोदितमनःक्रोधसमारम्भः, कृतमनःक्रोधआरम्भः कारितमनःक्रोधआरम्भः अनुमोदितमनःक्रोधआरम्भः एते नव भङ्गाः क्रोधाज्जाताः। कृतमनोमानसंरम्भः कारितमनोमानसंरम्भः अनुमोदितमनोमानसंरम्भः, कृतमनोमानसमारम्भः कारितमनोमानसमारम्भः अनुमोदितमनोमानसमारम्भः, कृतमनोमानआरम्भः कारितमनोमानआरम्भः अनुमोदितमनोमानआरम्भः, एते नव भङ्गा मानाज्जाताः। कृतमनोमायासंरम्भः कारितमनोमायासंरम्भः अनुमोदितमनोमायासंरम्भः, कृतमनोमायासमारम्भः कारितमनोमायासमारम्भः अनुमोदितमनोमायासमारम्भः, जो प्राणिसमूहके विषयमें प्रमादयुक्त होते हैं-उनके रक्षणमें असावधान होते हैंउनके प्राणीका घात हो अथवा न भी हो, कर्मबन्ध होता ही है। किन्तु जिनकी आत्मा अहिंसासे संवृत है-जो प्राणिरक्षणमें सदा सावधान हैं-उनके कभी कर्मबन्ध नहीं होता है॥८॥ ___संरम्भ आदि तीनको क्रमसे तीन योगों और चार कषायोंसे गुणित करके पुनः हिंसाभेदोंसे-कृत, कारित और अनुमोदना इन तीनसे-भी गुणित करनेपर सब भेद एक सौ आठ (३४३४३४४ = १०८) जानना चाहिए ॥ विशेषार्थ-हिंसाके संकल्प करनेका नाम संरम्भ है। उसके साधनोंको जुटाना व उनका अभ्यास करना, इसे समारम्भ कहा जाता है । तथा उसमें प्रवृत्त हो जाना, यह आरम्भ है । ये तीनों मन, वचन व कायसे सम्बद्ध होकर स्वयं किये जाते हैं, दूसरेको प्रेरित करके कराये जाते हैं, तथा किसीको करते-कराते देखकर उनके विषयमें प्रसन्नता भी प्रगट की जाती है । ये सब ही क्रोधादि चार कषायोंमेंसे किसी न किसी कषायकी अपेक्षा करते हैं। इसलिए इन सबको परस्पर गुणित करनेपर उनके १०८ भेद हो जाते हैं । इन भेदोंको इस प्रकारसे समझना चाहिए-१. क्रोधकृत कायसंरम्भ १. S F V B CJ स्याद्धिसायां, TX Y R हिंसायाः। २. Tत्मना। ३. N पिण्डितैः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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