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७. ज्ञानोपयोगः
455 ) ऋजुर्विपुल इत्येवं स्यान्मन:पर्ययो द्विधा । विशुद्ध प्रतिपाताभ्यां तद्विशेषो ऽवगम्यताम् ॥७ 456 ) अशेषद्रव्यपर्यायविषयं विश्वलोचनम् । अनन्तमेकमत्यक्षं केवलं कीर्तितं जिनैः ॥८
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परमाणून पश्यति । गुणप्रत्ययः सम्यक्त्वपूर्वतपश्चरणकादिगुणप्रत्ययः सर्वावधिश्चरमदेहे भवति । वर्गवर्गणासूक्ष्मकर्मस्कन्धान् पश्यति । सोऽपि गुणप्रत्ययः देशावधिश्चतुर्षु गतिषु भवति । देवनारकाणां तीर्थेशानां भवप्रत्ययः । इति सूत्रार्थः ||६|| अथ मन:पर्ययज्ञानमाह ।
455 ) ऋजुर्विपुल – मन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च स्वकीयमनो ऽवलम्बेन परकीयमनोगतं मूर्तं वस्तु पश्यति । स द्विविधः । ऋजुमतिर्विपुलमतिः । ऋजुमतिविपुलमत्योर्विशेषभेदः अवगम्यतां जानीयताम् (?) । तदावरणकर्मक्षयोपशमे सति आत्मनः प्रसादे विशुद्धिः प्रतिपतनं प्रतिपातः । न प्रतिपातो प्रतिपातः । उपशान्तकषायस्य चारित्रमोहोद्रेकात् प्रच्युतसंयमशिखरस्य प्रतिपातो भवति । क्षीणकषायस्य प्रतिपातकारणाभावात् अप्रतिपातश्च विशुद्धिश्च विशुद्धिप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषज्ञानम् । इति सूत्रार्थः ॥७॥ अथ केवलज्ञानस्वरूपमाह ।
456 ) अशेषद्रव्य - जिनैः तीर्थंकरैः केवलं ज्ञानं कीर्तितम् । कीदृशम् । अत्यक्षम् अतीन्द्रियम् । इति सूत्रार्थः ||८|| पुनस्तदेवाह ।
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और वह निम्नं छह भेदवाला है । १. अनुगामी— क्षेत्रान्तर व भवान्तर में साथ जानेवाला, २. अननुगामी, ३. वर्धमान - हानिसे रहित होकर उत्तरोत्तर बढ़नेवाला, ४. हीयमानवृद्धिसे रहित होकर उत्तरोत्तर हानिको प्राप्त होनेवाला, ५. अवस्थित - उत्पन्न होनेके समय जिस प्रमाण में था उतना ही रहनेवाला और ६. अनवस्थित - हीनता व अधिकताको प्राप्त होनेवाला ||६||
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मन:पर्ययज्ञान ऋजुमति और विपुलमति इस प्रकारसे दो प्रकारका है । इन दोनों में विशुद्धि और अप्रतिपातकी अपेक्षा विशेषता समझनी चाहिए ॥ विशेषार्थ -जो दूसरे के मनसें स्थित चिन्तित, अचिन्तित अथवा अर्धचिन्त्रित पदार्थको जानता है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । वह दो प्रकारका है— ऋजुमतिमन:पर्यय और विपुलमतिमन:पर्यय । इनमें जो सरल मन, वचन व कायसे किये गये दूसरेके मनोगत पदार्थको जानता है उसे ऋजुमतिमनःपर्यय, तथा जो सरळ व कुटिल भी मन, वचन एवं कायके द्वारा किये गये दूसरे के मनोगत पदार्थको जानता है, उसे विपुलमतिमनःपर्यय कहते हैं । इनमें ऋजुमतिमन:पर्यय की अपेक्षा विपुलमति विशुद्धतर (अधिक विशुद्ध) और अप्रतिपाती है - वह संयम - शिखर से न गिरनेवाले क्षीणकषाय होता है, उपशान्तकषायके नहीं होता । यह इन दोनों में विशेषता भी है ॥७॥
जो ज्ञान सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंको विषय करता है, समस्त लोकको देखने के लिए नेत्रके समान है, अनन्त है- - अनन्त पदार्थोंको युगपत् ग्रहण करनेवाला है, एक या केवल है - इन्द्रियों आदि की सहायता से रहित है, तथा अतीन्द्रिय है, उसे जिनभगवान् केवलज्ञान कहा है ||८||
१. P विशुद्धिप्रति० । २. F कीर्त्यते बुधैः, All others except PM N कीर्तितं बुधैः ।
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