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________________ १५६ ज्ञानार्णवः 441 ) इति जीवादयो भावा दिङ्मात्रेणात्र वर्णिताः । विशेषरुचिभिः सम्यग् विज्ञेयाः परमागमात् ||५१ 442 ) सद्दर्शनमहारत्नं विश्वलोकैकभूषणम् । मुक्तिपर्यन्तकल्याणदानदक्षं प्रकीर्तितम् ||५२ 443) चरणज्ञानयोर्बीजं यमप्रशमजीवितम् । तपः श्रुताद्यधिष्ठानं सद्भिः सद्दर्शनं मतम् ॥ ५३ 441 ) इति जोवादयो - अत्र ज्ञानार्णवे इति पूर्वोक्तप्रकारेण जीवादयः पदार्थादिङ्मात्रेण वर्णिताः कथिताः । परमागमात् विशेषरुचिभिः विशेषार्थ रुचिभिः सम्यग्विज्ञेया । इति सूत्रार्थ : ॥५१॥ अथ सम्यग्दर्शनफलमाह । [ ६.५१ 442 ) सद्दर्शन - सद्दर्शनं सम्यक्त्वं लोका भजत । कीदृशं सद्दर्शनम् । महारत्नं चिन्तामणिरत्नम् । पुनः कीदृशम् । विश्वलोकैकभूषणं सर्वलोकाभरणम् । पुनः कीदृशम् । मुक्तिपर्यन्तकल्याणदानदक्षं मुक्ति यावत् मङ्गलदानचतुरं प्रतिष्ठितमुक्तं जिनवरेरिति शेषः || ५२ ॥ पुनः सद्दर्शन 1 स्वरूपमाह । 443 ) चरण -- - सद्भिः सत्पुरुषः सद्दर्शनं सम्यक्त्वं मतम् । कीदृशम् । चरणज्ञानयोर्बीजं तदुत्पत्तिकारणमित्यर्थः । पुनः कीदृशम् । यमप्रशमजोवितं व्रतक्षान्तिस्वरूपम् । पुनः कीदृशम् । तपः श्रुताद्यधिष्ठानं बाह्याभ्यन्तरं तपः श्रुतं द्वादशाङ्गं तयोरधिष्ठानमाश्रय इत्यर्थः ॥ ५३॥ अथ सम्यक्त्वमतान्तरमाह । इस प्रकार से यहाँ जीवादि तत्त्वोंका संक्षेपसे वर्णन किया गया है। विशेष जिज्ञासा रखनेवाले जीवोंको उनका यथार्थ ज्ञान परमागमसे प्राप्त करना चाहिए || ५१|| समस्त लोकके अद्वितीय भूषणके समान वह सम्यग्दर्शनरूप महारत्न मुक्ति प्राप्त होने तक कल्याणके देने में समर्थ बतलाया गया है ॥५२॥ Jain Education International साधुजन उस सम्यग्दर्शनको चारित्र और ज्ञानका बीज ( कारण ), यस और प्रशमका प्राण तथा तप और आगमका आश्रय मानते हैं । विशेषार्थ - जब तक प्राणीको वह समयग्दर्शन नहीं प्राप्त होता है तब तक उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र ही रहता है - वही इन दोनोंकी यथार्थताका कारण है । उस सम्यग्दर्शनके बिना भले ही ग्यारह अंगों तकका ज्ञान क्यों न प्राप्त हो जावे, किन्तु वह निरर्थक ही रहता है । तथा उस समयदर्शनके साथ विशेष ज्ञानके न होने पर भी जीव केवलज्ञानको प्राप्त करके मोक्षपदको पा लेता है। इसी प्रकार उक्त सम्यग्दर्शनके बिना संयम और राग-द्वेषका उपशम ये दोनों भी निर्जीव (मुर्दा ) से प्रतीत होते हैं - उसके विना ये भी संसारपरिभ्रमणको नष्ट नहीं कर सकते हैं । साथ ही तप और श्रुतके अभ्यासकी सफलता भी इसी सम्यग्दर्शनके ऊपर निर्भर है | तात्पर्य यह कि सब धर्मोंका मूल यह सम्यग्दर्शन ही है ॥५३॥ १. B J 'णात्र दर्शिताः । २ BJ दक्षं प्रतिष्ठितम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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