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________________ -२२ ] १४३ ६. दर्शनविशुद्धिः 408 ) सम्यग्ज्ञानादिरूपेण ये भविष्यन्ति जन्तवः । प्राप्य द्रव्यादिसामग्री ते भव्या मुनिभिर्मताः ॥१९ 409 ) अन्धपाषाणकल्पं स्यादभव्यत्वं शरीरिणाम् । यस्माद्यत्नशतेनापि नात्मतत्त्वं पृथग्भवेत् ॥२० 410 ) अभव्यानां स्वभावेन सर्वदा जन्मसंक्रमः । भव्यानां भाविनी मुक्तिनिःशेषदुरितक्षयात् ॥२१ 411 ) यथा धातोर्मलैः सार्धं संबन्धो ऽनादिसंभवः । तथा कर्ममलै यः संश्लेषो ऽनादिदेहिनाम् ॥२२ भव्यरूपो ऽपवर्गाय मतो ऽभिमतः। च पुनः । इतरो ऽभव्यरूपः जन्मपङ्काय संसारकर्दमाय मतः। इति सूत्रार्थः ॥१८॥ अथ भव्यस्वरूपमाह । 408) सम्यग्ज्ञानादि-ये जन्तवो जीवाः सम्यग्ज्ञानादिरूपेण भविष्यन्ति । किं कृत्वा । द्रव्यादिसामग्रों प्राप्य । ते जीवा मुनिभिर्भव्या मता इति सूत्रार्थः ॥१९॥ अथ जीवस्वरूपमाह । 409 ) अन्धपाषाण-शरीरिणां अव्यक्तत्वं* अन्धपाषाणकल्पं स्वर्गपाषाणतुल्यं स्यात् । यस्माज्जन्मशतेनापि आत्मतत्त्वं पृथग् न भवेत् ॥२०॥ अथाभव्यानां स्वरूपमाह । ___410 ) अभव्यानां-अभव्यानां जीवानां सर्वदा निरन्तरं स्वभावेन जन्मसंक्रमः स्यात् । भव्यानां भाविनी मुक्तिर्वर्तते । कस्मात् । निःशेषदुरितक्षयात् सर्वपापक्षयात् ॥२१॥ अथ जीवेन सहानादिसंबन्धमाह। 411 ) यथा धातो:-यथेति दृष्टान्तोपन्यासे । धातोर्लोहादिकस्य स्वर्णादेर्वा । मलैः है। अभिप्राय यह है कि भव्य जीव अपनी योग्यताके अनुसार मोक्षगामी है, परन्तु अभव्य जीव सदा संसारमें ही परिभ्रमण करनेवाला है-उसमें मोक्षप्राप्तिकी योग्यता नहीं है ॥१८॥ जो प्राणो द्रव्य-क्षेत्रादिरूप सामग्रीको प्राप्त करके सम्यग्ज्ञानादि स्वरूपसे परिणत होंगे वे मुनियोंके द्वारा भव्य माने गये हैं ॥१९॥ प्राणियोंका अभव्यपना अन्धपाषाणके समान है। कारण यह कि उन्हें सैकड़ों प्रयत्नोंके - करने पर भी कभी आत्मतत्त्वका पृथक् अनुभव नहीं होता है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अन्धपाषाण कभी सुवर्णस्वरूपसे परिणत नहीं हो सकता है उसी प्रकार अभव्य जीव कभी रत्नत्रयस्वरूपसे परिणत नहीं होते और इसीलिए उन्हें मुक्ति भी कभी प्राप्त नहीं होती, क्योंकि, उनमें वैसी योग्यताका अभाव है ॥२०॥ अभव्य जीवोंका स्वभावसे ही निरन्तर संसारमें संचरण हआ करता है-वे सदा जन्म-मरणको प्राप्त होते हुए संसारमें ही परिभ्रमण किया करते हैं। परन्तु भव्योंको समस्त पापके-द्रव्य और भाव कर्मके-क्षयसे भविष्यमें मुक्ति प्राप्त होनेवाली है ॥२१॥ जिस प्रकार धातुका--सुवर्णपाषाणादिका-अनादि कालसे मलके साथ सम्बन्ध १. B स्यादव्यक्तत्वं । २. All others except P यस्माज्जन्मशतेनापि । ३. M सर्वथा जन्म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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