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________________ १४२ ज्ञानार्णवः [ ६.१६१ (405) उक्तं च तत्र जीवत्यजीवच्चे जीविष्यति सचेतनः । यस्मात्तस्माद्बुधैः प्रोक्तो जीवस्तच्चविदां वरैः || १६१ 406 ) एको द्विधा त्रिधा जीवश्चतुःसंक्रान्तिपञ्चगः । षष्टमः सप्तभङ्गोऽष्टाश्रयो नव - दशस्थितिः ॥१७ 407 ) भव्याभव्य विकल्पो ऽयं जीवराशेर्निसर्गजः । मतः पूर्वो ऽपवर्गाय जन्मपङ्काय चेतरः ॥ १८ 405 ) तत्र - [भूतवर्तमानभाविकालेषु सचेतन एव जीवति इति तत्त्वविद्वरः प्रोक्तमित्यर्थः ।। १६९ ॥ ] अथ जीवानामनेकत्वमाह । 406 ) एको द्विधा - एकश्चैतन्यरूपः । द्विधा त्रसस्थावरभेदात् । त्रिधा एकेन्द्रिय-विकले - न्द्रिय- सर्वेन्द्रियभेदात् । चतुर्धा एकेन्द्रिय- विकलेन्द्रिय-संज्ञ्य संज्ञिभेदात् । पञ्च भेदा यथा एकेन्द्रियपञ्चेन्द्रियपर्यन्ताः । षड् भेदा यथा एकेन्द्रियपञ्चेन्द्रियपर्यन्ताः षष्ठः त्रसस्थावररूपश्च । पञ्चस्थावरविकलेन्द्रियसकलेन्द्रियभेदात् सप्त । पञ्चस्थावरविकलेन्द्रियसंज्ञय संज्ञिसंक्रमादष्टप्रकारः । सकलेन्द्रिय विकलत्रयं पञ्च स्थावरा इति नव भेदाः । पञ्चस्थावर विकलत्रयं संज्ञ्यसंज्ञिभेदात् दशधा | इति सूत्रार्थः ||१७|| अथ भव्याभव्यस्वरूपमाह । 407 ) भव्याभव्य --- अयं जीव * राशिभंव्याभव्यविकल्पो निसर्गजः स्वभावजो भवति । पूर्वो जो चेतनासे संयुक्त रहकर जीता है, जीता था और जीवित रहेगा वह जीव है; ऐसी चूँकि जीवकी निरुक्ति है, इसीलिए तत्त्वज्ञोंमें श्रेष्ठ विद्वानोंने उसे जीव कहा है ।।१६ १ || जीव चेतनतासामान्यकी अपेक्षा एक प्रकारका; त्रस और स्थावर अथवा भव्य और अभव्य की अपेक्षा दो प्रकारका एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रियकी अपेक्षासे तीन प्रकारका एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, संज्ञी और असंज्ञीकी अपेक्षा अथवा चार गतियोंकी अपेक्षा चार प्रकारका इन्द्रियभेदसे पाँच प्रकारका पाँच स्थावर और त्रस भेदोंकी अपेक्षा छह प्रकारका पाँच स्थावर, विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय इन भेदोंकी अपेक्षा अथवा अस्तित्वादि भंगों की अपेक्षा सात प्रकारका पाँच स्थावर, विकलेन्द्रिय, संज्ञी और असंज्ञी इन भेदों की अपेक्षा आठ प्रकारका; पाँच स्थावर और द्वीन्द्रियादि चार त्रस इस प्रकार से नौ प्रकारका; तथा पाँच स्थावर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रिय इस प्रकार से दस प्रकारका है ||१७|| Jain Education International जीवराशिकी जो यह भव्य और अभव्यरूप विशेषता है वह स्वभावजनित है । इनमें भव्य जीव मोक्ष के लिए और अभव्य जीव संसाररूप कीचड़ में निमग्न रहनेके लिए माना गया १. PM B उक्तं च- । २. VBCJ X Y R जीवत्यजीवीच्च । ३. All others except P MN पञ्चमः, MN पञ्चकः । ४. M N LF षट्क्रम:, Others षट्कर्म । ५. M N नवदशस्थितः । ६. All others except PM N जीवराशिः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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