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________________ १३९ -१०] ६. दर्शनविशुद्धिः 896 ) जीवाजीवासवा बन्धः संवरो निर्जरा ततः । मोक्षश्चैतानि सप्तैव तत्त्वान्यूचुर्मनीषिणः ॥८॥ तद्यथा307 ) अनन्तः सर्वदा सर्वो जीवराशिर्द्विधा स्थितः । सिद्धेतरविकल्पेन त्रैलोक्यभुवनोदरे ॥९ 398 ) सिद्धस्त्वेकस्वभावः स्याद् दृग्बोधानन्देशक्तिमान् । मृत्युत्पत्यादिजन्मोत्थक्लेशप्रचयविच्युतः ॥१० 396 ) जोवाजीवा-[ मनोषिणो विद्वांस ऊचुः कथितवन्त इत्यर्थः ॥८॥ ] तद्यथा । अथ जीवभेदानाह। 397 ) अनन्तः-सिद्धेतरभेदात् । इतरे संसारिणः । शेषं सुगमम् ॥९॥ तत्राद्यभेदमाह । 398 ) सिद्धस्त्वेक-सिद्धः । तु पुनः । एकस्वभावः स्यात् । कीदृशः। दृग्बोधानन्दशक्ति अपनी प्रशंसा और दूसरोंकी निन्दा करना, यह अनुपगूहन दोष है। ६. प्राणियोंको मोक्षमार्गसे भ्रष्ट होते हुए देख करके भी उन्हें उसमें स्थिर रखनेका प्रयत्न नहीं करना, इसे अस्थितीकरण कहा जाता है। ७. साधर्मीजनोंका सद्भावनाके साथ यथायोग्य आदरसत्कार नहीं करना, इसका नाम अवात्सल्य है। ८. जैन धर्मविषयक अज्ञानताको दूर करके उसकी महिमाको प्रदर्शित करनेका प्रयत्न नहीं करना या स्वयं अज्ञानतावश ऐसा आचरण करना कि जिससे धमकी निन्दा हो सकती हो, इसका नाम अप्रभावना है। ये पच्चीस (२५) उस सम्यग्दर्शनके दोष हैं। उसे निर्मल रखनेके लिए इन दोषोंको दूर करना ही चाहिए ।।७*१॥ जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सातोंको विद्वान् पुरुष तत्त्व कहते हैं ॥८॥ इनमें से प्रथमतः १६ श्लोकोंमें जीवतत्त्वका वर्णन इस प्रकारसे किया गया है-तीन लोकरूप भुवनके भीतर सिद्ध और संसारीके भेदसे सदा अवस्थित रहनेवाली समस्त जीवराशि अनन्त है। विशेषार्थ-जीवका स्वरूप ज्ञान-दर्शन है । ये जीव संसारी और सिद्धके भेदसे दो प्रकारके हैं। जो ज्ञानावरणादि कर्मों के वशीभूत होकर निरन्तर जन्म-मरणको प्राप्त होते हुए चतुर्गतिमें परिभ्रमण किया करते हैं वे संसारी कहे जाते हैं। इसके विपरीत जो उन आठों कर्मोंसे रहित होते हुए जन्म-मरणके दुःखसे छुटकारा पाकर अविनश्वर एवं अबाधित सुखको प्राप्त हो चुके हैं वे सिद्ध या मुक्त जीव कहलाते हैं। इन सब जीवोंकी संख्या अनन्त है ।।९।। जो जीव दर्शन, ज्ञान, आनन्द ( सुख ) और शक्ति ( वीर्य ) स्वरूप अनन्त चतुष्टयको १. MN बन्धसंवरौ B°जोवाश्रवबन्धः संवरो, Y जीवास्रवो बन्धः । २. All others except PMB तथा for ततः । ३. PM L BX तद्यथा, F उक्तं च । ४. BJ द्विधा भवेत् । ५. F V CY'बोधानन्तशक्तिमान् । ६. VCR मृत्यूत्पादादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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