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395 ) ['उक्तं च
ज्ञानार्णवः
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मूत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि पट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः ॥ ७*१]
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395) मूढत्रयं - सम्यग्दर्शनस्य पञ्चविंशतिदोषाः प्रोक्ताः । के ते । मूढत्रयं लोक-देवतापाखण्डिमूढता इति त्रयो दोषाः । ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वम् । स्मयो नाम मदः । स चाष्टविधः । कुदेव - कुगुरु-कुधर्माः तेषां सेवकारच एवं षडायतनानि । शङ्का - काङ्क्षा - विचिकित्सा मूढदृष्टिः- अनुपगूहनम् अस्थितीकरणं-वात्सल्याभावः- प्रभावनाभावश्चेति अष्टौ शङ्कादयो दोषा इत्यर्थः ॥ ७१ ॥ ] अथ सप्ततत्त्वान्याह ।
[ ६.७१ -
तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन और शंका आदि आठ; इस प्रकार ये पच्चीस दोष उक्त सम्यग्दर्शनको मलिन करनेवाले हैं । विशेषार्थ - मूढ़ताका अर्थ अज्ञानता होता है । वह अज्ञानता संक्षेपमें तीन प्रकारकी हो सकती है-धर्म के विषय में, देवके विषय में, और गुरुके विषय में । गंगा आदि में नहाने, बालु और पत्थरोंका ढेर करने, पर्वतसे गिरने और सती आदिके रूप में अग्नि में जल मरने; इत्यादि क्रियाओं में धर्म के न होते हुए भी धर्म मानना, यह धर्मविषयक अज्ञानता है। इसे लोकमूढ़ता या धर्ममूढ़ता के नामसे कहा जाता है । अभीष्टसिद्धिके कारण मानकर धन या सन्तानकी प्राप्ति आदिकी अभिलाषासे राग-द्वेषादिसे दूषित देवताओंकी - आप्ताभासोंकी - आराधना करनेका नाम देवमूढ़ता है । जो आरम्भ, परिग्रह एवं हिंसा आदिमें रत होते हुए भी साधुके वेषको धारण करते हैं उन असाधुओंको साधु समझ कर उनकी यथार्थ साधुके समान भक्ति व उपासना आदि करना, यह गुरुमूढ़ता है । बुद्धि, पूजा-प्रतिष्ठा, कुल (पितृवंश), जाति (मातृवंश ), शारीरिक बल, धन-सम्पत्ति, तप ( उपवास आदि) और शरीर सौन्दर्य; इन आठमेंसे जिस किसीके भी आश्रयसे अन्तःकरण के भीतर अभिमान प्रादुर्भूत होता है उसे उस उस नामका मदजैसे बुद्धिमद व प्रतिष्ठामद आदि - समझना चाहिए। आयतनका अर्थ स्थान होता है । जो धर्म के आयतन होते हैं वे धर्मायतन कहे जाते हैं । किन्तु जो धर्मके वस्तुतः स्थान नहीं होते हैं वे अनायतन कहलाते हैं और वे संक्षेपमें छह हैं- कुदेव, कुश्रुत और कुलिंगी (कुगुरु) तथा इन तीनोंके भक्त- - कुदेवभक्त, कुश्रुतभक्त व कुलिंगिभक्त । इन छहों की प्रशंसा आदि करनेसे सम्यग्दर्शन मलिन होता है । इनके अतिरिक्त जो शंका आदि आठ दोष हैं वे ये हैं - १. आगममें तपश्चरण से अनेक ऋद्धियों एवं स्वर्ग- मोक्षकी जो प्राप्ति बतलायी गयी है वह सत्य है क्या, इत्यादि प्रकार से होनेवाली तत्त्वश्रद्धानकी शिथिलताका नाम शंका है । २. सांसारिक सुखको स्थिर समझकर भोगोंकी अभिलाषा रखनेका नाम कांक्षा है । ३. मुनि आदिके मलिन शरीरको देखकर मनमें ग्लानिका भाव उत्पन्न होना, यह विचिकित्सा दोष है । ४. यथार्थ व अयथार्थ की परीक्षा न करके मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र तथा इनके धारकजनोंकी पूजा व स्तुति आदि करना; इसका नाम मूढदृष्टि है । ५. यदि अज्ञानी या अशक्तजनोंके कारण मोक्षमार्गकी निन्दा होती हो तो उसे दूर करनेका प्रयत्न नहीं करना तथा १. PLFVCY Om this verse, MN उक्तं च- ।
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