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________________ ११४ ज्ञानार्णवः [४.३९ 329 ) कान्दीप्रमुखाः पञ्च भावना रागरञ्जिताः। येषां हृदि पदं चक्रः क्व तेषां वस्तुनिश्चयः ॥३९ 330 ) [ 'कान्दी कैल्बिषी चैव भावना चाभियोगिकी । दानवी चापि संमोही त्याज्या पञ्चतयी च सा ॥३९४१ ] चपलं स्वभावचञ्चलं यदि स्यात् स *ध्यानपरीक्षायां क्षमः समर्थः कथं भवेत् इति सूत्रार्थः ।।३८।। अथ कान्दीप्रमुखभावनायुक्तस्य ध्यानाभावमाह। 329 ) कान्दीप्रमुखाः-कान्दी-किल्बिषी-आसुरो-संमोही-आभियोगिकीप्रमुखाः पञ्चभावना येषां हृदि पदं स्थानं चक्रुः, तेषां वस्तुनिश्चयः आत्मनिश्चयः क्व । न क्वापीति भावार्थः ॥३९।। अथ पञ्चभावनामाह । 330 ) कान्दी कैल्बिषी-कान्दी, कैल्बिषो, आभियोगिकी, दानवी, संमोही एवं पञ्चप्रकारा भावनाः वस्तुज्ञातृभिस्त्याज्याः ॥३९ १।। अथ कुत्सितचारित्रस्य त्रपाकरत्वमाह । लिया है मिथ्यादृष्टियोंने मोहित करके उसे सन्मार्गसे विमुख कर दिया है-वह ध्यानकी परीक्षामें कैसे समर्थ हो सकता है ? नहीं हो सकता है ॥३८।। जिनके हृदयमें रागसे रंगी हुई कान्दो आदि पाँच भावनाओंने स्थान बना रखा है उनके तत्त्वका निश्चय कहाँसे हो सकता है ? नहीं हो सकता है ॥३९॥ । कान्दी, कैल्बिषी, आभियोगिकी, दानवी और पाँचवीं सम्मोही भावना; ये पाँचों ही भावनाएँ छोड़नेके योग्य हैं। विशेषार्थ-कान्दी आदि नामोंके अनुसार इन भावनाओंका स्वरूप निम्न प्रकार प्रतीत होता है-१. कन्दर्प नाम कामवासनाका है । उस कामके वशीभूत होकर असत्यके आश्रयसे हँसी-मजाक करना, इसका नाम कान्दी भावना है । इस भावनाके वशीभूत हुआ प्राणी कन्दर्प जातिके देवोंमें जन्म ग्रहण करता है। २. किल्बिषका अर्थ पाप होता है। तीर्थंकर व संघकी महिमा तथा आगम ग्रन्थोंके प्रतिकूल रहकर उनका अनादर करना, यह कैल्बिषी भावना है । इसमें रत हुआ प्राणी किल्बिषिक जातिके देवोंमें उत्पन्न होता है। ३. भूतिकर्म (शरीरमें भस्मका लेपन) और मन्त्रादिमें आसक्त रहना, दूसरोंसे बलपूर्वक काम कराना तथा अन्य जनोंका परिहास करना; इसका नाम आभियोगिकी भावना है। इसके वशीभूत हुआ प्राणी आभियोग्य जातिके देवोंमें उत्पन्न होता है। ४. क्रोधादि कषायोंमें आसक्त रहकर करतापूर्ण आचरण करना तथा हृदय में वैरभाव रखना, यह दानवी, (आसुरी) भावना कही जाती है। इस भावनामें रत रहनेवाला प्राणी असुर जातिके देवोंमें उत्पन्न होता है । ५. मूढताके वश कुमार्गका उपदेश करना तथा समीचीन मार्ग के विषय में विवाद करना, इसका नाम सम्मोही भावना है । इसके वशीभूत हुआ प्राणी सम्मोह जाति के देवोंमें उत्पन्न होता है। इसीलिए यहाँ इन उपर्युक्त पाँचों निकृष्ट भावनाओंके परित्यागकी प्रेरणा की गयी है ॥३९१।। १. FC कान्दाप्रमुखाः, V कन्दर्पप्रमुखाः । २. P M N omit। ३. F कान्दा योगिनी, S कान्दो योगिकी, L योगिनी; 1 किल्बीषी चैव । ४. B संमोहा..."पंचमी च सा । Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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