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________________ - १८३] २. द्वादश भावनाः 234 ) नरत्वं यद्गुणोपेतं देशजात्यादिलक्षितम् । प्राणिनः प्राप्नुवन्त्यत्र तन्मन्ये कमलाघवात् ।।१८१ 235 ) आयुः सर्वाक्षसामग्री बुद्धिः साध्वी प्रशान्तता । *यत्स्यात्तत्काकतालीयं मनुष्यत्वे ऽपि देहिनाम् ॥१८२ 236 ) ततो निर्विषयं चेतो यमप्रशमवासितम् । यदि स्यात् पुण्ययोगेन न पुनस्तत्त्वनिश्चयः ।।१८३ 234 ) नरत्वं यद्गुणोपेतं-तदहं मन्ये । प्राणिनः अत्र संसारे नरत्वं प्राप्नुवन्ति । कथंभूतं नरत्वम् । यद्गुणोपेतं नरगुणोपेतम् । पुनः कोदृशम् । देशजात्यादिलक्षितम् आर्यदेशो आर्यजातिः तदादिलक्षितम् । कस्मात् । कर्मलाघवात् ।।१८१।। अथातर्कितहेतुः अत्रैव जीवस्य आयकादिसामग्रोप्राप्तिः इत्याह । ___ 235 ) आयुः सर्वाक्षसामग्री-यद् यस्मात् कारणात् देहिनां प्राणिनां मनुष्यत्वे अपि मनुष्यप्राप्तौ अपि एतत्सामग्रीप्राप्तिः । का सामग्री । आयुः सत्यायुषि । सर्वाक्षसामग्री पटुपञ्चेन्द्रियत्वम् । तथा साध्वी बुद्धि : प्रधानमतिः। तथा प्रशान्तता क्रोधाद्यभावः । तत्सर्व काकतालीयं काकतालीयन्यायवत् अतर्कितोपस्थितम् इत्यर्थः ।।१८२।। अथात्र चेतःस्वरूपमाह । 236 ) ततो निविषयं चेतः ततः तदनन्तरं यदि चेतः यमप्रशमवासितं व्रतक्षान्तियुक्तं पण्ययोगेन निर्विषयं स्यात् । पनः तथापि तत्र तत्त्वनिश्चयो नास्ति इति श्लोकार्थः॥१८३।। सत्स्वपि शुभायुष्कादिषु संसारपरिभ्रमणमाह । यदि यहाँ प्राणीको उत्तम देश व जाति आदिके साथ गुणयुक्त मनुष्य पर्याय प्राप्त हो जाती है तो वह कर्मको लघुतासे-पापके भारके कम होनेपर ही प्राप्त होती है, ऐसा मैं मानता हूँ ॥१८१॥ मनुष्य पर्यायको पाकर भी जो लम्बी आयु सब इन्द्रियोंकी परिपूर्णता, उत्तम बुद्धि और कषायोंकी उपशान्ति होती है, वह काकतालीय न्यायसे ही प्राप्त होती है ॥ विशेषार्थअभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कोई कौआ ताल वृक्षके नीचेसे उड़ता हुआ जा रहा हो और उसी समय अकस्मात् उसका फल टूटकर नीचे गिरे व कौआ उसे चोंचमें पकड़ ले, यह सुयोग कदाचित् ही प्राप्त होता है; उसी प्रकार मनुष्य पर्यायके प्राप्त हो जानेपर भी लम्बी आयु आदिरूप उक्त सब सामग्रीकी प्राप्तिका सुयोग भी प्राणीको कदाचित् ही होता है। फिर उस सबके प्राप्त हो जानेपर भी यदि प्राणी आत्महितमें नहीं प्रवृत्त होता है तो यह उसका दुर्भाग्य ही समझना चाहिए ॥१२॥ __पूर्वोक्त सामग्रीके साथ यदि प्राणीका मन पुण्यके उदयसे विषयवांछासे रहित होकर संयम एवं कषायोंके उपशमसे संयुक्त भी होता है तो उसे तत्त्व का-आत्मस्वरूपका-निश्चय नहीं होता है ।।१८३।। १. M नरत्वे । २. B जात्यादिलक्षणं । ३. F V C यदि तत्काक । यदि स्यात् काक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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