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________________ ७३ -१५६ ] २. द्वादश भावनाः 205 ) धर्मो नरोरगाधीशनाकनायकवाञ्छिताम् । अपि लोकत्रयीपूज्यां श्रियं दत्ते शरीरिणाम् ॥१५३ 206 ) धर्मों व्यसनसंपाते पाति विश्वं चराचरम् । सुखामृतपयःपूरैः प्रीणयत्यखिलं तथा ॥१५४ 207 ) पर्जन्यपवनार्केन्दुधराम्बुधिपुरंदराः । अमी विश्वोपकारेषु वर्तन्ते धर्मरक्षिताः ॥१५५ 208) मन्ये ऽसौ लोकपालानां व्याजेनाव्याहतक्रमः। जीवलोकोपकारार्थं धर्म एव विजृम्भितः ॥१५६ 205 ) धर्मो नरोरगाधीश-शरीरिणां श्रियं दत्ते । कः। धर्मः। कथंभूतां श्रियम् । लोकत्रयीपूज्याम् । अपि पुनः कोदशीम् । नरोरगनाकनायकवाञ्छितां मनुष्यनागेन्द्राभिमतामित्यर्थः ॥१५३॥ अथ धर्ममाहात्म्यमाह। 206 ) धर्मो व्यसनसंपाते-धर्मः चराचरं विश्वं पाति । कस्मिन् । व्यसनपाते कष्टागमने। धर्मः अखिलं जगत् प्रोणयति । कैः । सुखामृतपयःपूरैरित्यर्थः ॥१५४॥ अथ पर्जन्याद्या धर्मरक्षिताः [ तेषाम् ] उपकारकारित्वमाह। 207 ) पर्जन्यपवनार्केन्दु-अमी प्रत्यक्षीभूताः पर्जन्यपवनार्केन्दुधराम्बुधिपुरंदराः मेघवायुसूर्येन्दुक्षितिसमुद्रेन्द्राः विश्वोपकारेषु वर्तन्ते । कथंभूताः। धर्मरक्षिता इति भावः ॥१५५ । अथ धर्मोपकारमाह। 208) मन्ये ऽसौ-अहम् एवं मन्ये । असौ धर्मः लोकपालानां व्याजेन जीवलोकोपकारार्थ विजृम्भितः प्रसृतः । कथंभूतः । अभ्याहतक्रमः सर्वव्यापीत्यर्थः ।।१५६।। अथ धर्मस्वरूपमाह । धर्म प्राणियोंको तीनों लोकोंसे पूजनीय उस लक्ष्मीको प्रदान करता है जिसकी कि चक्रवर्ती, धरणेन्द्र और इन्द्र अभिलाषा करते हैं। तात्पर्य यह कि चक्रवर्ती आदिकी वह विभूति प्राणियोंको धर्मके प्रभावसे ही प्राप्त होती है ॥१५३॥ * धर्म आपत्ति के समयमें त्रस और स्थावर जीवोंसे परिपूर्ण समस्त विश्वकी रक्षा करता है तथा सब ही लोकको वह सुखरूप अमृतजलके प्रवाहसे सन्तुष्ट करता है ॥१५४॥ मेघ, वायु, सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, समुद्र और इन्द्र; ये सब धर्मसे रक्षित होकर ही लोकके सब प्रकारके उपकार में प्रवृत्त होते हैं। अभिप्राय यह है कि धर्म के होते हुए मेघ एवं वायु आदि सब ही जगत्का उपकार किया करते हैं। परन्तु उस धर्मके बिना वे भी घातक हो जाते हैं ॥१५५।। ग्रन्थकार उत्प्रेक्षा स्वरूपसे कहते हैं कि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जीवलोककालोकके समस्त प्राणियोंका-उपकार करने के लिए लोकपालोंके छलसे स्वतन्त्रतापूर्वक सर्वत्र विचरण करनेवाला वह धर्म ही व्याप्त ( या विकसित ) हो रहा है ॥१५६।। १. All others except P °त्यखिलं जगत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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