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________________ ६८ ज्ञानार्णवः (189 ) विहाय कल्पनाजालं स्वरूपे निश्चलं मनः । यदाधत्ते तदैव स्यान्मुनेः परमसंवरः || १३८ 190 ) सकलसमितिमूलः संयमोदामकाण्डः प्रशमविपुलशाखो धर्मपुष्पावकीर्णः । अविकलफलबन्धैर्बन्धुरो भावनाभिजयति जितविपक्षः संवरोदारवृक्षः || १३९ [ इति ] संवरः । [८] विचारचतुरा । का इव । द्वारपालीव द्वारपालिकेव । अथेति पक्षान्तरे । तस्य सूतिः जन्म स्वप्नेऽपि दुर्घटा || १३७ ॥ अथ संवरलक्षणमाह । 189 ) विहाय कल्पना - यदा स्वरूपे निश्चलं मनः धत्ते । किं कृत्वा । कल्पनाजालं विहाय । मुनेः ज्ञानिनः । तदेव परमसंवरः || १३८ || अथ संवरस्य वृक्षदृष्टान्तेन द्रढयति । मालिनी छन्दः । [ २.१३८ - 190 ) सकलसमितिमूलः - संवरोद्दामवृक्षो* जयति । जितविपक्षः नष्टान्तरायः । पुनः कथंभूतः । सकलसमितिमूलः । सुगमम् । पुनः कथंभूतः । संयमोद्दामकाण्डः संयमोत्कटस्कन्धः । सुगमम् । पुनः कीदृशः । प्रशमविपुलशाखः । सुगमम् । पुनः कीदृशः । धर्मपुष्पावकीर्णः यतिगृहिध में प्रसूनव्याप्तः । पुनः कीदृशः । अविकलफलैर्बन्धुरः संपूर्ण फलबन्धैर्मनोहरः । काभिर्जयति । भावनाभिः । इति सूत्रार्थः ॥ १३९ ॥ अथ निर्जरामाह । कि जिस प्रकार द्वारपर स्थित पहरेदार किसी ऐसे-वैसे जनको भवनके भीतर नहीं प्रविष्ट होने देता है उसी प्रकार साधुकी विवेक बुद्धि नवीन कर्मको प्रविष्ट नहीं होने देती है - उसके आस्रव को रोकती है ॥ विशेषार्थ - आस्रवके निरोधका नाम संवर है । जैसा कि पीछे श्लोक १२८ में निर्दिष्ट किया गया है; क्रोधादि कषाय, इन्द्रियविषय ( राग-द्वेष ) और मिथ्यात्व आदिके द्वारा चूँकि कर्मोंका आगमन होता है अतएव ये सब आस्रव माने जाते हैं । साधुजन उक्त क्रोधादि कषायों, राग-द्वेष और मिथ्यात्व आदिको उनके विपक्षभूत क्षमा, मार्दव, आर्जव, परिग्रह - परित्याग, निर्ममता और सम्यग्दर्शन आदिके द्वारा नष्ट करके उनके निमित्तसे आनेवाले नवीन कर्मोंको रोक देते हैं । इसीलिए वे संवरके स्वामी हो जाते हैं ॥१३७॥ जिस समय मुनिका मन समस्त कल्पनाओंके समूहको छोड़कर अपने स्वरूप में स्थिर हो जाता है उसी समय मुनिके उत्कृष्ट संवर होता है || १३८ || Jain Education International समस्त समितियोंरूप जड़ोंसे स्थिर, संयमरूप प्रचण्ड स्कन्धसे सहित, कषायों की शान्तिरूप बहुत-सी शाखाओंसे सुशोभित, उत्तम क्षमादि धर्मोरूप पुष्पोंसे व्याप्त और परिपूर्ण फलोंके सम्बन्ध के समान अनित्यादि भावनाओंसे मनोहर ऐसा यह संवररूप विशाल वृक्ष कर्म - शत्रु पर विजय प्राप्त करता हुआ जयवंत रहे ||१३२९ ॥ संवरभावना समाप्त हुई । १. M तदेव स्यात् । २. All others except PFC संवरोद्दामवृक्षः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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