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________________ ५२ ज्ञानार्णवः 141 ) यदैक्यं मनुते मोहादयमर्थैः स्थिरेतरैः | तदा स्वं स्वेन बध्नाति तद्विपक्ष: शिवीभवेत् ॥ ९१ 142 ) एकाकित्वं प्रपन्नो ऽस्मि यदाहं वीतविभ्रमः । तदैव जन्मसंबन्धः स्वयमेव विशीर्यते ॥ ९२ 143 ) एकः स्वर्गी भवति विबुधः स्त्रीमुखाम्भोजभृङ्ग एकः श्राभ्रं पिवति कललं छिद्यमानः कृपाणैः । अयम् । अज्ञातस्वस्वरूपः अज्ञातस्त्रचैतन्यः । पुनः कथंभूतः । लुप्तबोधादिलोचनः । पुनः कथंभूतः । विधिवञ्चितः कर्मवञ्चितः ॥९०॥ [ २.९१ - 141 ) यदैक्यं मनुते —-यदा अयं जीवः मोहात् अज्ञानात् अथैरैक्यं मनुते । कथंभूतैः । स्थिरेतरेः स्थिरचञ्चलैः । तदा जीवः स्वमात्मानं स्वेन प्रस्तावात्कर्मणा बध्नाति । अथैक्याभावाद्विपक्षः शिवी मुक्तो भवति । इति सूत्रार्थः ॥ ९१ ॥ अथ एकाकित्वे जन्म भवतीत्याह । 142 ) एकाकित्वं - यदा अहम् एकाकित्वं प्रपन्नोऽस्मि प्राप्तोऽस्मि । कथंभूतोऽहम् । वीतविभ्रमः गताज्ञानः । तदैव जन्मसंबन्धः स्वयमेव विशीर्यते हानिं याति इति संबन्धः ||१२|| अथ जीवानां वैचित्र्यमाह । 143 ) एकः स्वर्गीभवति - एको जीवः स्वर्गीभवति विबुधः । कथंभूतः । स्त्रीमुखाम्भोजभृङ्गः स्त्रीमुखकमलभ्रमरः । एको जीवः स्वात्र स्वरुधिरं पिबति । कलिलं मांसं कृपाणैः छिद्यकर्मसे ठगा जाकर अकेला ही इस संसार में निरन्तर परिभ्रमण करता है ||१०|| यह जीव मोहके वश होकर जबतक स्थिर और अस्थिर ( विनश्वर ) पदार्थों के साथ अपनी एकता मानता है- ये मेरे हैं और मैं इनका हूँ इस प्रकार की ममत्व बुद्धि रखकर उनको आत्मासे भिन्न नहीं समझता है - तबतक वह अपने आपको उनसे स्वयं बाँधता हैउनके अधीन रहकर व्याकुल होता है । और इससे विपरीत प्राणी - जो स्थिर और अस्थिर सब ही बाह्य पदार्थोंको आत्मासे भिन्न समझकर उनमें अनुरक्त नहीं होता है—बन्धनसे मुक्त होकर शाश्वतिक सुखका भोक्ता हो जाता है ॥ ९१ ॥ जब मैं विपरीत बुद्धिको छोड़कर - बाह्य पर पदार्थों में आत्मबुद्धि न करके - एकाकीपनको (अद्वैतभावको ) प्राप्त हो जाता हूँ उसी समय मेरे संसारका सम्बन्ध स्वयं ही नष्ट हो जाता है ॥ विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि प्राणी जबतक शरीरादि बाह्य पदार्थोंको अपना मानकर उनमें मुग्ध रहता है तबतक वह कर्मबन्धनमें बद्ध होकर संसार में परिभ्रमण करता है, और इसके विपरीत जब वह शरीरादिको आत्मासे भिन्न मानकर उनकी ओरसे विरक्त होता हुआ आत्मस्वरूप में मग्न होता है तब वह नवीन कर्मबन्धसे रहित होकर पूर्वसंचित कर्मकी निर्जरा करता हुआ मुक्त हो जाता है ||१२|| एक विद्वान (विवेकी) स्वर्गवासी देव होकर देवांगनाओंके मुखरूप कमलका भ्रमर बन जाता है - उनके साथ दिव्य भोगोंको भोगता है, इसके विपरीत एक प्राणी तलवारोंसे Jain Education-International १. All others except PMNB X तद्विपक्षैः । २. M N शिवो भवेत् । ३. PM श्रीमुखाौं । ४. Y भृङ्गश्चैकः । ५. BJ स्वात्रं पिबति । ६. All others except P कलिलं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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