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________________ -८४ ] २. द्वादश भावनाः 131 ) माता पुत्री स्वसा भार्या सैव संपद्यते ऽङ्गिनाम् । पिता पुत्रः पुनः सो ऽपि लभते पैतृकं पदम् ॥८२ 132 ) श्वभ्रे शलकुठारयन्त्रदहनक्षारक्षरव्याहतै स्तैरश्चे कटुकर्मपावकशिखासंभारभस्मीकृतैः । मानुष्ये ऽप्यतुलप्रयासवशगैर्देवेषु रागोद्धतैः संसारे ऽत्र दुरन्तदुर्गतिमये बम्भ्रम्यते प्राणिभिः ॥८३ [इति] संसारः । [३] 133 ) महाव्यसनसंकीर्णे दुःखज्वलनदीपिते । एकाक्येव भ्रमत्यात्मा दुर्गे भवमरुस्थले ॥८४ _131 ) माता पुत्री-अङ्गजा* पुत्री। शेष सुगमम् ॥८२॥ अथ चतुर्गतिदुःखस्वरूपमाह । शा० विक्रीडितम् । 132 ) श्वभ्रे शूलकुठार-प्राणिभिः अत्र संसारे बम्भ्रम्यते अतिशयेन भ्रम्यते । कथंभूते संसारे । दुरन्तदुर्गतिमये दुःप्राप्यदुर्गतिस्वरूपे । कथंभूतैः । प्राणिभिः। श्वभ्रे नरके । शूलकुठारयन्त्रदहनक्षारक्षुरव्याहतैः । यन्त्रं तैलनिक्वानकाष्ठं, दहनो वह्निः, क्षारं लवणादि, क्षुरो ऽपि अयोमयः शस्त्रविशेषः । तिर्यक्षु* तिर्यग्गतिषु । कथंभूतैः प्राणिभिः । श्रमदुःखपावकशिखासंभारभस्मोकृतैः। श्रमदुःखाग्निज्वालासमूहभस्मीकृतैः । मानुष्ये ऽपि अतुलप्रयासवशगैः । देवेषु रागोद्धतैः ।।८३॥ इति संसारभावना तृतीया ॥ अथ एकत्वभावनामाह। 133 ) महाव्यसन-आत्मा एकाक्येव भ्रमति । क्व । दुग भवमरुस्थले संसारमरुदेशे। प्राणियोंकी माता मरकर कभी पुत्री हो जाती है, कभी बहिन हो जाती है, और वही कभी स्त्री भी हो जाता है। इसी प्रकार पिता मरकर पुत्र हो जाता है और फिर वही पुनः पिताके पदको प्राप्त कर लेता है ।।८।। ___संसारी प्राणी नरकगतिमें शूल (शूली या त्रिशूल ), कुठार ( फरसा ), यन्त्र (तिल आदिके पेरनेके यन्त्र ), अग्नि, क्षार ( पिघलनेवाले पदार्थ या खारे पदार्थ ) और छुरा, इत्यादिके संयोगसे छिन्न-भिन्न होकर कष्ट पाते हैं; तिथंच अवस्था में कड़ए (कष्टप्रद) कर्मरूप अग्निकी ज्वालाओंके समूहसे भस्म किये जाते हैं-पाप कर्म के वशीभूत होकर बोझा ढोने एवं शीत-उष्ण व ताड़ने आदिके प्रचुर दुःखोंको सहते हैं; मनुष्य पर्यायमें अथक परिश्रम करते हुए दुःखी रहते हैं; तथा देवगतिमें रागसे उद्धत रहनेके कारण कष्ट भोगते हैं। इस प्रकारसे वे इस दुर्विनाश चतुर्गतिस्वरूप संसारमें बार-बार परिभ्रमण करते 1८३।। संसार भावना सम ४. एकत्वभावना-भयानक विपत्तियोंसे व्याप्त और दुःखरूप अग्निसे सन्तप्त इस १.LS T F V B CJX संपद्यतेऽङ्गजा। २. S T BJY पौत्रिक। ३. L तैर्यञ्च, All others except P तिर्यक्षु श्रमदुःखपावक । ४. M शिखासंचार, N शिलासंचार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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