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________________ - ६२ ] २. द्वादश भावनाः 108 ) गजाश्वनरसैन्यानि मन्त्रौषधवलानि च ।। व्यर्थीभवन्ति सर्वाणि विपक्षे देहिनां यमे ॥५९ 109 ) विक्रमैकरसस्तावज्जनः सो ऽपि वल्गति । न शृणोत्यदयं यावत् कृतान्तहरिगर्जितम् ॥६० 110 ) अकृताभीष्टकल्याणमसिद्धारब्धवाञ्छितम् । प्रागेवागत्य निस्त्रिंशो हन्ति लोकं यमः क्षणे ॥६१ 111 ) भ्रभङ्गारम्भभीतं स्खलति जगदिदं ब्रह्मलोकावसानं सद्यस्त्रुट्यन्ति शैलाश्चरणगुरुभराक्रान्तधात्रीवशेन । 108 ) गजाश्वनरसैन्यानि-देहिनां प्राणिनां यमे विपक्षे प्रतिकूले सर्वाणि गजाश्वरथ*. सैन्यानि व्यर्थीभवन्ति । च पुनः। मन्त्रौषधबलानि व्यर्थीभवन्ति इत्यर्थः ॥५९।। अथ तस्यैवाधिक्यमाह। ___109 ) विक्रमैकरस-सर्वो ऽपि जनो ऽभिमानी यावत् अदयं निर्दयं कृतान्तहरिगजितं यमसिंहशब्दं न शृणोति इति सूत्रार्थः ॥६०।। अथ यमस्याधिक्यमाह । ___110 ) अकृताभीष्ट-क्षणे मरणसमये यमः लोकं हन्ति । कथं भूतः । निस्त्रिशो निर्दयः । कथंभूतम् । अकृताभीष्टकल्याणम् अप्राप्ताभिमतश्रेयसम् । पुनः कथंभूतम् । असिद्धारब्धवाञ्छितमिति भावः ॥६१॥ अथ महावीराणामपि काल कृतापायमाह । स्रग्धरा। 111 ) भ्रूभङ्गारम्भभीतं-ते ऽपि प्रवीराः सर्वे कतिपयदिवसैः कालराजेन मृत्युनायकेन नीता वार्तावशेषं प्राप्ताः कथावशेषजाताः । येषां प्रवीराणां चरणगुरुभराक्रान्तधात्रीवशेन पदगरिष्ठ उस यमके प्राणियों के विरुद्ध होनेपर हाथी, घोड़ा, मनुष्य और सेना तथा मन्त्र व औषधकी भी सब शक्तियाँ निरर्थक होती हैं-उसके सामने इनमेंसे किसीका भी प्रभाव नहीं चलता है ॥५॥ __ जब तक यमरूप सिंहकी निर्दय (भयानक ) गर्जना नहीं सुनी जाती तब तक सब ही प्राणी अपने पराक्रममें चूर होते हुए प्रवर्तमान देखे जाते हैं-मृत्युका आक्रमण होनेपर सभीका पराक्रम नष्ट हो जाता है ॥६०॥ जिस प्राणीने अपने अभीष्ट हितको नहीं किया है तथा जिसकी आरम्भ किये हुए कार्यके पूर्ण करनेकी इच्छा भी सिद्ध नहीं हो सकी है-जो प्रारम्भ किये हुए कार्यको अभी पूरा भी नहीं कर सका है, ऐसे प्राणी को वह यम पहिले ही आकर क्षणभरमें मार डालता है ॥६॥ जिन सुभटोंकी भ्रुकुटियोंके भंगमात्रसे ही केवल क्रोधित होनेपर ही-ब्रह्मलोकपर्यन्त यह सब जगत् गिर जाता है तथा जिनके पैरोंके भारी बोझसे दबी हुई पृथिवीके वश बड़े-बडे २. P अदयं = निष्ठुरं। ३. M प्रागेवागतनिस्त्रिशो। १. All others except P गजाश्वरथ। ४. L F क्षणात् । ५. B] °रम्भभीरु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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