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________________ - ४१ ] ___ १९ १. पीठिका 39 ) हृषीकराक्षसाक्रान्तं स्मरशार्दूलचर्वितम् । दुःखार्णवगतं जन्म' विवेच्य विरतं बुधैः ॥३९ 40 ) भवभ्रमणविभ्रान्ते मोहनिद्रास्तचेतने । एक एव जगत्यस्मिन् योगी जागर्त्यहनिशम् ॥४० 41 ) रजस्तमोभिरुद्धृतं कषायविषमूर्छितम् । विलोक्य सत्त्वसंतानं सन्तः शान्तिमुपाश्रिताः॥४१ 39 ) हषीकराक्षस-बुधैः पण्डितैः दुःखार्णवगतं दुःखसमुद्रप्राप्तं जन्म विवेच्य विवेकीकृत्य विरतम् । कथंभूतं जन्म । हृषीकराक्षसाक्रान्तम् । हृषीकाणि इन्द्रियाणि, तान्येव राक्षसाः, तैराक्रान्तम् । स्मरशार्दूलचर्वितं कन्दर्पसिंहभक्षितमित्यर्थः ।।३९॥ अथ योगिनां प्रशमहेतुमाह । ____40 ) भवभ्रमण-अस्मिन् जगति अहर्निशम् अहोरात्रम् एक एव योगी जागति । कथंभूते जगति । भवभ्रमणविभ्रान्ते संसारपर्यटनभ्रान्ते । पुनः कथंभूते। मोहनिद्रास्तचेतने मोहस्वापगतचेतने इति तात्पर्यार्थः॥४०॥ अथैवंभूतं सत्त्वसंघातं दृष्ट्वा सन्तो विरक्तास्तदेवाह । 41 ) रजस्तमोभि-सन्तः सत्पुरुषाः सत्त्वसंतानं प्राणिसमहं विलोक्य शान्ति क्रोधाद्यभावम् । उपाश्रिताः प्राप्ताः। कथंभूतं सत्त्वसंतानम् । रजस्तमोभिरुद्भूतं रजोगुणतमोगुणैरुत्थापितैः उत्थापितम् । पुनः कथंभूतं सत्त्वसंतानम् । कषायविषमूच्छितमिति सुगमम् ॥४१॥ अथ मुनीनां कृत्यमाह । ज्ञानी जन संसारको इन्द्रियरूप राक्षसोंसे व्याप्त, कामरूप सिंहके द्वारा चबाया गया और दुखरूप समुद्र में मग्न हुआ देखकर उसकी ओरसे विमुख हुए हैं। अभिप्राय यह है कि संसार में परिभ्रमण करते हुए अज्ञानी जीव इन्द्रियविषयोंमें आसक्त होकर निरन्तर दुख भोगते हैं। उनकी इस दयनीय अवस्थाका विचार कर जिन्हें विवेक बुद्धि उत्पन्न हुई है वे ज्ञानी जीव उन इन्द्रिय विषयोंसे विरक्त हुए हैं ॥३९॥ यह लोक जन्म-मरणस्वरूप संसार में परिभ्रमण करते हुए प्राणियोंको भ्रान्ति उत्पन्न करके मोहरूप नींदके द्वारा उनकी विचारशक्तिको नष्ट करनेवाला है। इसीलिए इसके भीतर स्थित योगीजन दिन-रात जागते रहते हैं-मोहरूप निद्राको छोड़कर आत्मस्वरूपके विषयमें सदा ही प्रबुद्ध रहते हैं ॥४०॥ साधु जन प्राणिसमूहको ज्ञानावरणादिरूप कर्मधूलिसे तथा अज्ञानरूप अन्धकारसे अथवा रजोगुण और तमोगुणसे उत्कट एवं कषायरूप विषसे मूर्छित देखकर शान्तिको प्राप्त हुए हैं-कषायसे रहित हुए हैं ।।४।। २. P विविच्य । ३. N विभ्रान्तमोह, Y भ्रमणसंभ्रान्ते । १. S T VCR गतं विश्व । ४. J अहनिशि। Jain Education International For Private & Personal use only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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