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________________ १६ ज्ञानार्णवः 30 ) अज्ञानजनितश्चित्रं न विद्मः को ऽप्ययं ग्रहः । उपदेशशतेनापि यः पुंसां नापसर्पति ॥ ३० 31 ) सम्यग्निरूप्य सद्वृत्तैर्विद्वद्भिर्वीतमत्सरैः । अत्र मृग्या गुणा दोषाः समाधाय मनः क्षणम् || ३१ किं च32 ) स्वसिद्धयर्थं प्रवृत्तानां सतामप्यत्र दुर्धियः । द्वेषबुद्धा प्रवर्तन्ते केचिज्जगति जन्तवः ॥ ३२ विक्रिया विकार: यस्मिन् तत् अविद्यागरविक्रियम् इति भावार्थः ॥ २९ ॥ अथाज्ञानोत्पन्नकदाग्रहः कथमपि न नश्यति तदेवाह । 30 ) अज्ञानजनितः - चित्रमाश्चर्यम् । वयं न विद्मः न जानीमहे । अयं को ऽपि अज्ञानजनितः कदाग्रहो ऽस्ति । यः कदाग्रहः उपदेशशतेनापि पुंसां नापसर्पति नापगच्छति इति तात्पर्यार्थः ॥३०॥ अथात्र पण्डितैर्गुणदोषा विचार्या तदेवाह । [ १.३० 31 ) सम्यङ् निरूप्य - अत्र ग्रन्थे गुणा दोषा मृग्याः विचार्याः । किं कृत्वा । क्षणं क्षणमात्रं मनः समाधाय समाधौ विधाय । कथंभूतैर्विद्वद्भिः । वीतो गतो मत्सरो येभ्यः ते तथा तैः । पुनः कोदृशेः । सद्वृत्तैः सदाचारैः । किं कृत्वा । सम्यङ् निरूप्य कथयित्वा इति भावार्थः ॥ ३१॥ अथ स्वहितास तत्पुरुषाणां दुर्बुद्धे द्वेषप्रवृत्तिमाह । किं च । 32 ) स्वसिद्धयर्थं — के चिज्जन्तवा जीवा जगति संसारे द्वेषबुद्धया क्रोधमत्या प्रवर्तन्ते । केषाम् । सतां सत्पुरुषाणाम् । अत्र स्वसिद्धयर्थं स्वप्रयोजनाय प्रवृत्तानामपि । कीदृशाः जन्तवः । दुधियः दुष्टमतिकाः । इति सूत्रार्थः ||३२|| अथ वस्तुगुणदोषविचारकानाह । Jain Education International तात्पर्य यह कि मिथ्या शास्त्र यद्यपि कभी-कभी सुनते समय क्षणभरके लिए सज्जनोंके भी मनको मुग्ध करता है, परन्तु परिणाम में वह विषके समान सन्तापजनक ही होता है ||२९|| आश्चर्य है कि अज्ञानसे उत्पन्न हुआ यह ऐसा कोई ग्रह ( पिशाच ) है जिसे हम नहीं जानते हैं और जो सैकड़ों उपदेशोंके द्वारा भी पुरुषोंका पिण्ड नहीं छोड़ता है। तात्पर्य यह कि मिथ्या शास्त्रों को पढ़-सुनकर जो मिथ्यात्वरूप पिशाच प्रगट होता है उससे पीड़ित होकर प्राणी सैकड़ों सदुपदेशोंको भो पाकर आत्महित में नहीं लग पाता ||३०|| मात्सर्यभाव से रहित जो सदाचारी विद्वान् हैं उन्हें भले प्रकार देखकर क्षणभरके लिए मनके समाधानपूर्वक इस शास्त्र में गुण और दोषोंको खोजना चाहिए। अभिप्राय यह है कि यह जो शास्त्र रचा जा रहा है उसके विषय में विद्वान् गुण और दोषोंको खोजते हुए मात्सर्यभावका परित्याग अवश्य करें, अन्यथा गुण और दोषोंकी यथार्थ प्रतीति होना सम्भव नहीं है ||३१|| दूसरे, संसार में कुछ ऐसे भी दुर्बुद्धिजन हैं जो आत्मसिद्धिके लिए प्रवृत्त हुए सत्पुरुषोंके प्रति भी यहाँ द्वेषबुद्धिसे प्रवृत्त होते हैं । तात्पर्य यह कि संसार में कुछ ऐसे दुष्ट भी हैं जो स्वभावसे सज्जनोंके प्रति द्वेषबुद्धि रखकर उनकी निरर्थक निन्दा किया करते हैं ||३२|| १. L X नोपसर्पति; MSVCR पुंसामपसर्पति । २. PXY किं च । ३. STVCR सतामपि च । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001696
Book TitleGyanarnav
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1977
Total Pages828
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, Dhyan, & Yoga
File Size18 MB
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