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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 51 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान करो।" अन्य योगों में भी इसे इसी तरह प्रतिपादित करे फिर शिष्य कहे - "अमुक श्रुतस्कन्ध, अमुक अध्ययन एवं अमुक उद्देश के अर्थ हेतु (उद्देशणार्थ) मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।" यह कहकर एवं अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके चतुर्विंशतिस्तव बोले। पुनः मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके द्वादशावतसहित खमासमणासूत्र से वंदन करके कहे - “आप अपनी इच्छा पूर्वक मुझे अमुक श्रुतस्कन्ध के अमुक अध्ययन के अमुक उद्देशक का उपदेश दें।" शेष क्रिया यथा खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन कर गुरु से निवेदन करना, गुरु का प्रत्युत्तर, शिष्य का कथन, कायोत्सर्ग आदि सभी क्रियाएँ पूर्ववत् ही हैं। पुनः मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके कहे -“आप अपनी इच्छापूर्वक मुझे यावत् उद्देश की अनुज्ञा दें।" गुरु कहे -“मैं अनुज्ञा देता हूँ।" शेष सब क्रियाएँ, अर्थात् खमासमणासूत्र से वंदन, शिष्य का निवेदन, गुरु का प्रत्युत्तर, अनुज्ञा कायोत्सर्गादि पूर्ववत् करे विशेष उद्देश हेतु वंदन के अन्त में गुरु कहे - “योग (अध्ययन) करो।" समुद्देश हेतु वंदन के अंत में गुरु कहे - "इसे अच्छी तरह से जानो।" अनुज्ञा हेतु वंदन के अंत में गुरु कहे-“अच्छी तरह से धारण करो।" अन्यत्र भी इन प्रसंगो में इसी प्रकार का कथन करे। “इसे साधुओं को बताने की मुझे अनुज्ञा दें", आदि शिष्य के निवेदन के अन्त में उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा आदि में यथाक्रम गुरु इसी प्रकार कहे। अंगसूत्र के श्रुतस्कन्ध के उद्देश एवं अनुज्ञा के पूर्व नंदी करे। कालिक योगों में शिष्य खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके कहे -“हे भगवन्! मैं संघट्ट की मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करता हूँ।" यह कहकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे। द्वादशावतसहित खमासमणा सूत्र से वंदन करके कहे - "मुझे संघट्ट (संस्पर्श) की अनुज्ञा दें।“ “संघट्ट (संस्पर्श) के अनुज्ञार्थ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ"- यह कहकर तथा अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे एवं कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट में चतुर्विंशतिस्तव बोले। कालिकसूत्रों के योगो में भी ऊपर कहे गए अनुसार ही क्रिया करते हैं। वहाँ भी इसी प्रकार मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना, कायोत्सर्ग इत्यादि क्रियाएँ दूसरी बार भी की जाती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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