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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 52 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान स्पष्ट कथन, अर्थात् उक्तमान के अभाव में भी कालिक योगों में संघट्ट आदि की अनुज्ञा विधि हमेशा की जाती है। उत्कालिक योग में संघट्ट उक्तमान का उद्देश भी नहीं होता है और क्रिया भी नहीं होती है। तत्पश्चात् - "अमुक श्रुतस्कन्ध, अमुक अध्ययन के उद्देशनार्थ, समुद्देशनार्थ और अनुज्ञार्थ निरुद्ध, अर्थात् प्रत्याख्यान और पारणा कराएं।" - ऐसा गुरु से निवेदन करे। तत्पश्चात् गुरु निरुद्ध में आयम्बिल का प्रत्याख्यान और पारणे में नीवि का प्रत्याख्यान कराएं। नीवि में शिष्य पहले द्वादशावतपूर्वक वन्दन करके फिर प्रत्याख्यान करता है। आयम्बिल में वन्दन के बिना ही प्रत्याख्यान करता है - यह उद्देश आदि की विधि है। फिर पुनः स्वाध्याय प्रस्थापन करे। अंग बाह्यकालिक एवं उत्कालिक सूत्रों के अध्ययन हेतु कालग्रहण, स्वाध्याय-प्रस्थापन, संघट्ट आदि की विधि अलग से नहीं बताई गई हैं। अंगप्रविष्ठ आगम ग्रंथों के समान ही कालिक ग्रंथों के उद्देशक आदि के अध्ययन में कालग्रहण से लेकर श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, उद्देशक आदि के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा के लिए भी उन-उन अभिलापों के द्वारा मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन करके वंदन, खमासमणा एवं कायोत्सर्ग करते हैं। उत्कालिक आगम ग्रन्थों के योगों में दिन में अध्ययन करने की भी यही विधि है। संध्याकाल में, अथवा अर्द्धरात्रि में कालग्रहण करने वालों के लिए संघट्टे की विधि एवं प्रत्याख्यान की विधि नहीं होती है। प्राभातिक कालग्रहण के समान ही क्रिया विधि करने की विधि है, अर्थात् मतांतर से यह भी विधि है। श्रुतस्कन्ध के प्रारम्भ में कुछ लोग आयम्बिल करने के लिए कहते हैं, यहाँ गरु-परम्परा को ही महत्त्व दें - यह सब योगों के संसधान की विधि है। अब योगोद्वहन की विधि बताई जा रही है - १. आवश्यक २. दशवैकालिक ३. मण्डलप्रवेश ४. उत्तराध्ययन ५. आचारांग ६. सूत्रकृतांग ७. स्थानांग ८. समवायांग ६. निशीथ १०. जीतकल्प ११. बृहत्कल्प १२. व्यवहार १३. दशाश्रुतस्कन्ध १४. ज्ञाताधर्मकथा १५. उपासकदशा १६. अंतकृद्दशा १७. अनुत्तरोपपातिकदशा १८. प्रश्नव्याकरण १६. विपाकसूत्र २०. उपांग २१. प्रकीर्णक २२. महानिशीथ एवं २३. भगवती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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