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________________ आचारदिनकर (भाग - २) 49 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान " मण्डूकप्लुत" न्याय से अर्थात् मेंढक की तरह फुदकते हुए चलकर कालमण्डल में प्रवेश करे यह स्वाध्याय- प्रस्थापन की विधि है । प्रभातकाल में कालग्रहण की दो घड़ी और प्रतिलेखना की दो घड़ी छोड़कर दो-दो मुहूर्त के दो स्वाध्यायों का प्रस्थापन करे “स्वाध्याय में लगे दोषों के प्रतिक्रमणार्थ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ" - यह कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में नमस्कारमंत्र का चिन्तन करे एवं कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट में नमस्कारमंत्र बोले । द्वितीय कायोत्सर्ग में "काल - सम्बन्धी दोषों के प्रतिक्रमणार्थ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।“ द्वितीय स्वाध्याय के अन्त में भी इसी प्रकार की क्रिया करे। यह कालग्रहणपूर्वक स्वाध्याय - प्रस्थापन की विधि है योगवाही प्रभातकाल में, अर्थात् रात्रि - प्रतिक्रमण के अन्त में “योग के संरक्षणार्थ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ"- यह कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे, कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट में चतुर्विंशतिस्तव बोले । योगवाही प्रतिदिन यह क्रिया करे । तत्पश्चात् प्रभातकाल में योगोद्वहन के आरम्भ और समाप्ति पर नंदीविधि करे । यहाँ उसकी विधि का उल्लेख है T - Jain Education International चैत्य (मंदिर) में, या उपाश्रय में पूर्ववत् समवसरण की स्थापना कर प्रदक्षिणा करे। फिर शिष्य गुरु को खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके कहे - " आप इच्छापूर्वक मुझे अमुक श्रुतस्कन्ध के अमुक उद्देशक के निमित्त नंदी करने के लिए वासक्षेप करे और चैत्यवंदन करांए।“ तत्पश्चात् गुरु पूर्व में कही गई विधि के अनुसार वासक्षेप को अभिमंत्रित करके शिष्य के सिर पर डाले। फिर पूर्व में कही गई विधि के अनुसार दोनों वर्धमान - स्तुति से चैत्यवंदन करे। शान्तिदेवता, श्रुतदेवता क्षेत्रदेवता, भुवनदेवता, शासनदेवता एवं वैयावृत्त्यकर देवता का कायोत्सर्ग एवं स्तुति पूर्व में जिस प्रकार बताई गई है, उसी प्रकार से करे । फिर शक्रस्तव, अर्हणादिस्तोत्र, जयवीयराय आदि का पाठ पूर्व की भाँति ही बोलें। फिर योगवाही मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके द्वादशावर्त्त वन्दन दें। फिर " उद्देशक आदि के अध्ययन निमित्त नंदी करने हेतु मैं कायोत्सर्ग करता हूँ", ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे । कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट में चतुर्विंशतिस्तव बोले । फिर खड़े हुए - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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