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________________ आचारदिनकर (भाग - २) 48 - जैनमुनि जीवन के विधि-विधान करे । फिर खमासमणासूत्र से वन्दन करके कहे - "हे भगवन्! मैं वसति का ग्रहण करूं " पुनः खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे - "हे भगवन्! वसति निर्दोष (शुद्ध) है । " पुनः खमासमणापूर्वक वन्दन करके कहे "हे भगवन्! मैं प्रभातकाल का ग्रहण कंरु ।" पुनः इसी प्रकार वंदन करके कहे - "हे भगवन् ! प्रभातकालग्रहण निर्दोष (शुद्ध) है।" फिर गुरु, योगवाही तथा अन्य मुणिगण स्वाध्याय हेतु स्थापनाचार्य के सम्मुख जाएं। यह कालग्रहण साधु का नित्यकर्म है । अब विशेष रूप से स्वाध्याय - प्रस्थापना की विधि का विवेचन किया जा रहा है । कालग्रही या अन्य ( दूसरा व्यक्ति) स्थापनाचार्य के आगे मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करके द्वादशावर्त्तसहित खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके कहे "हे भगवन्! मैं स्वाध्याय करूं ?" पुनः खमासमणासूत्र से वंदन करके कहे - “स्वाध्याय - प्रस्थापन के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।" यह कहकर एवं अन्नत्थसूत्र बोलकर वह कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में नमस्कारमंत्र का चिन्तन करे। मौनपूर्वक नमस्कार मंत्र से कायोत्सर्ग पूर्ण करके एवं धीरे से दोनों हाथों को सामने लाकर सत्ताईस उच्छ्वास परिमाण चतुर्विंशतिस्तव का मौनपूर्वक पाठ करे पुनः मौनपूर्वक ही दशवैकालिकसूत्र के प्रथम दो अध्ययन एवं तीसरे अध्ययन का एक सूत्र पढ़े। पुनः उसी प्रकार कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में नमस्कारमंत्र का विशेष चिन्तन करे। फिर कायोत्सर्ग पूर्ण करके, मौनपूर्वक नमस्कारमंत्र पढ़े और मौनपूर्वक ही द्वादशावर्त्त वन्दन करे । तत्पश्चात् मौनपूर्वक खमासमणासूत्र से वंदन करके कहे-“हे भगवन्! मैं स्वाध्याय करूं ?" स्वाध्याय - प्रस्थापन करने तक की क्रिया मौनपूर्वक होती है। उसके बाद आपस में चर्चा कर सकते हैं । पुनः खमासमणासूत्र से वंदन करके कहे - “हे भगवन् ! स्वाध्याय निर्दोष है ?" गुरु कहे - "निर्दोष है । " तत्पश्चात् दो बार खमासमणासूत्र से वंदन कर कहे - "हे भगवन्! मुझे स्वाध्याय करने की अनुज्ञा दें, मैं स्वाध्याय प्रारम्भ करता हूँ।" फिर जानु नीचे की तरफ झुके, इस तरह बैठकर नमस्कारमंत्र बोलते हुए दशवैकालिक सूत्र के प्रारम्भ की पाँच गाथाएँ पढ़े। फिर द्वादशावर्त्तपूर्वक वन्दन करे। तत्पश्चात् कालमण्डल में जाकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करके तीन बार उसी प्रकार क्रिया करे, जिस प्रकार कालग्रहण के समय की थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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