SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारदिनकर (भाग-२) 47 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान निसीही-निसीही-निसीही", बोलकर स्थापनाचार्य के समीप जाकर गमनागमन की क्रिया के दोषों का प्रतिक्रमण कर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में परमेष्ठीमंत्र का चिन्तन करे। फिर प्रकट में परमेष्ठीमंत्र बोले, तत्पश्चात् बैठकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे, द्वादशावत सहित खमासमणासूत्र से वन्दन कर-"प्रभातकाल प्रतिपादन करूं ?" - ऐसा कहे। यहाँ तक सम्पूर्ण क्रिया मौनपूर्वक होती है, इसके बाद ही दूसरों से बोलना होता है। पुनः खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके कहे-"क्या मुनियों के लिए यह प्रभातकाल शुद्ध है।" मुनि कहें - "हाँ शुद्ध है।" फिर दण्डधर भी स्थापनाचार्य के समीप आए। दण्डधर और कालग्रही - दोनों स्थापनाचार्य के आगे जानु भूमि की तरफ झुकाकर वज्रासन में बैठकर, नमस्कारमंत्र बोलकर दशवैकालिकसूत्र की प्रथम छ: गाथाओं का स्वाध्याय करे। फिर कालग्रही द्वादशावर्त्तवन्दन देकर कहे-“किसी ने (किसी में कोई दोष) देखा या सुना हो तो कहे।" (प्रत्युत्तर में) मुनि भगवंत कहें - "किसी ने नहीं देखा और न सुना।" - यह कालग्रहण की. विधि है। प्रभातकालीन कालग्रहण की विधि के अनुसार ही वाघाई (संध्याकाल), अद्धरत्ति (अर्द्धरात्रि) और विरत्ति (विरात्रि) में कालग्रहण करते हैं। संध्याकाल को वाघाई, रात्रि के द्वितीय प्रहर की समाप्ति को अर्द्धरत्ति और रात्रि के चतुर्थ प्रहर के प्रारम्भ को विरत्ति कहते हैं। प्रभात काल का ग्रहण दो घड़ी रात्रि शेष रहने पर करते हैं। इस प्रकार ये चारों कालग्रहण रात्रि में ही होते हैं। संध्या एवं अर्द्धरात्रि के समय कालग्रहण में स्थापनाचार्य दक्षिण दिशा में, विरात्रि के कालग्रहण में स्थापनाचार्य पश्चिम या दक्षिण दिशा में एवं प्रभात के कालग्रहण में स्थापनाचार्य को पश्चिम दिशा में रखते हैं। छींक, बिल्ली के शब्द आदि से प्रभात का कालग्रहण भग्न होता है, उसे पुनः सात या नौ बार आरंभ किया जा सकता है। किन्तु अन्य विघ्न द्वारा अन्य कालग्रहण के भग्न होने पर उसे पुनः ग्रहण नहीं किया जा सकता। इस प्रकार प्रभात के कालग्रहण की क्रिया निष्पन्न करने पर प्रतिलेखन के समय, अंग प्रतिलेखना एवं उपधि प्रतिलेखना करे। वसति का प्रमार्जन करके अस्थि, चर्म आदि की शुद्धि करे। फिर कालग्रही गमनागमन के दोषों का प्रतिक्रमण करके मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy