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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 46 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान सुकुमारता का त्याग कर, काम, अर्थात् विषय-वासना का त्याग करे इससे दुःख अपने-आप, अतिक्रांत हो जावेगा। द्वेष-भाव को छिन्न कर, राग-भाव को दूर कर, ऐसा करने से तू संसार-इहलोक और परलोक में सुखी होगा। अगंधन कुल में उत्पन्न सर्प ज्वलित, विकराल, धूमकेतु अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं, परन्तु (जीने के लिए) वमन किए हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते। हे यशः कामिन् ! धिक्कार है तुझे ! जो तू क्षणभंगुर जीवन के लिए वमित वस्तु को पीने की इच्छा करता है, इससे तो तेरा मरना श्रेय है। मैं भोजराज की पुत्री (राजीमती) हूँ और तू अंधकवृष्णि का पुत्र (रथनेमि), हम कुल में गन्धन सर्प की तरह न हों। तू निभृत हो, स्थिर मन हो तथा संयम का पालन कर। यदि तू स्त्रियों को देख उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव करेगा, तो वायु से आहत हट (जलीय वनस्पति) की तरह अस्थितात्मा हो जाएगा। संयमिनी (राजीमती) के इन सुभाषित वचनों को सुनकर रथनेमि धर्म में वैसे ही उनकीन हो तथा संयन्धन सर्प की तब अंधकवृष्णि १. कालग्रहण करके दशवैकालिकसत्र का स्वाध्याय करते समय "त्तिबेमि" ऐसा समाप्ति सूचक आलापक बोलने से कालग्रहण नष्ट हो जाता है - ऐसी परम्परागत मान्यता है। स्थिर हो गए, जैसे अंकुश से हाथी वश में होता है। सम्बुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण पुरुष ऐसा ही करते है, वे भोगों से वैसे ही दूर हो जाते हैं, जैसे कि पुरुषोत्तम रथनेमि हुए - ऐसा मैं कहता हूँ। श्रामण्यपूर्वक नामक द्वितीय अध्ययन समाप्त होता है। जो संयम में सुस्थितात्मा है, जो विप्रमुक्त है, त्राता है, उन निर्ग्रन्थ महर्षियों के लिए ये अनाचीर्ण हैं (अग्राह हैं, असेव्य हैं, अकरणीय तः दक्षिण, पश्चिम न करे। चतुधि अध्ययन की पुनः दक्षिण, पश्चिम, उत्तर दिशा में भी इसी प्रकार कायोत्सर्ग कर नमस्कारमंत्र का चिन्तन करे। चतुर्विंशतिस्तव के पाठपूर्वक दशवैकालिकसूत्र के प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय अध्ययन की एक गाथा का पाठ भी चारों दिशाओं में करे। पुनः पुर्वाभिमुख होकर उसी प्रकार कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में मौनपूर्वक परमेष्ठीमंत्र का स्मरण कर प्रकट में परमेष्ठीमंत्र बोले। फिर “आवस्सीही-आवस्सीही-आवस्सीही, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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