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आचारदिनकर (भाग-२)
37 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान की दस्सियों के समूह के ऊपर दोनों हाथों को मिलाकर अधोमुख करके स्थापित करे। पुनः हाथों की हथेलियों को उन्नत (आकाश की
ओर) करे - इस प्रकार तीन बार करे - यह हस्त संस्पर्श (संघट्ट) है। दोनों पैरों के तलियों को समान करके, अर्थात् मिलाकर रजोहरण से तीन बार प्रमार्जित करे। पुनः दोनों पैरों को मिलाए, तीन बार इसी प्रकार से करे दोनों हाथों को अपने दोनों पैरों के बीच में रखे। दोनो हाथों को बाहर करने से संघट्ट चला जाता है। जानु अन्तराल के बाहर दोनों हाथों से गृहीत वस्तु का संघट्ट होते हुए भी संघट्ट नहीं होता है। दोनों पैरों को नीचे की तरफ फैलाने से और उन्हे पुनः पीछे की तरफ लेने पर संस्पर्श (संघट्ट) होते हुए भी उसे संस्पर्श नहीं कहलाता है। असंस्पर्शित (असंघट्टित) दोनों पैरों को भीतर की तरफ लेकर, अर्थात् जानु की तरफ लेकर पात्रादि का संस्पर्श करने पर भी संस्पर्श नहीं कहलाता है। अतः पूर्व में हाथ और पैर को संघट्टित करने में सावधानी रखनी चाहिए। अकृतयोगी मुनि द्वारा वस्तु और शरीर का संस्पर्श होने पर भी संघट्ट नहीं माना जाता है। आवश्यक, दशवैकालिक, मण्डली-प्रवेश, उत्तराध्ययन, आचारांग, बृहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कन्ध के योगोद्वहन करने वालों को कृतयोगी कहा जाता है। इनसे न्यून, अर्थात् कम योगवाहियों को अकृतयोगी कहा जाता है। इसके पश्चात् पात्र केसरिका = पात्र प्रतिलेखन की पूंजणी का संस्पर्श (संघट्ट) करे। उसके संस्पर्शन की विधि यह है - दाएँ हाथ में पात्रकेसरिका की डण्डी को पकड़कर बाएँ हाथ से उसके दस्सियों से युक्त भाग को पकड़े। दाएँ हाथ की अंगुली और अंगूठे को घूमाकर उस पात्रकेसरिका को दक्षिणावर्त घुमाए, पुनः वामावर्त्त घुमाए - इस प्रकार तीन बार करे। पुनः दाएँ हाथ से पात्रकेसरिका को ग्रहण करके बाएँ हाथ की अंजलि बनाकर उस पात्रकसेरिका की दस्सियों के अग्रभाग को तीन बार प्रक्षेपित करे। पुनः बाएँ हाथ की हथेली को फैलाकर पात्रकसेरिका से तीन बार प्रमार्जित करे, यह क्रिया तीन बार करे - यह पात्रकेसरिका के संस्पर्शन की विधि है। तत्पश्चात् झोली का संस्पर्शन (संघट्ट) करे - चार कोनों वाली झोली के चारों कोनों को मिलाकर दोनों हाथों के मध्य में रखे, रजोहरण पर उसे डालकर प्रथम दक्षिणावर्त बाद में वामावर्त घुमाए, तीन बार
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