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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 36 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान जाने में मैंने जो संस्पर्श (संघट्ट किया है, उसे बताने की मैं अनुज्ञा चाहता हूँ और संघट्टे के अनुज्ञार्थ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ"- संघट्टा लेते समय गुरू से योगवाही ऐसा आदेश माँगे - १. खमासमणासूत्रपूर्वक इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! संघट्ट' संदिसावेमि। गुरू कहे - संदिसावेह। २. खमासमणासूत्रपूर्वक इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! संघट्ट करेमि। गुरू कहे - करेह। ३. इच्छं, संघट्टसंदिसावणत्थं करेमि काउसग्गं। - ऐसा कहे तथा 'अन्नत्थसूत्र' बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में नमस्कारमंत्र का विशेष चिन्तन करे। फिर प्रकट नमस्कारमंत्र बोले। आने पर योगवाही ईर्यापथिकी के दोषों की आलोचना करके, “इच्छाकारेणसंदिसह भगवन् । संघट्ट पडिक्कमामि। गुरू कहे - पडिक्कमेह। इच्छं संघट्टस्य पडिक्कमणत्थं करेमि काउसग्गं - ऐसा कहकर योगवाही अन्नत्थसूत्र बोले तथा कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में नमस्कार मंत्र का चिन्तन करे, फिर प्रकट में नमस्कारमंत्र बोले। यह चर संस्पर्श (संघट्ट) की विधि है। अब स्थिर संस्पर्श (संघट्ट) की विधि बताई जा रही है - स्थिर संघट्ट (संस्पर्श) - हाथ, पैर, धर्मध्वज (रजोहरण), पात्र, दोरक (डोरी), झोलिका आदि स्थिरसंस्पर्श (संघट्ट) है और वह बताते हैं :- पहले मुनि ईर्यापथिकी के दोष से पीछे हटकर पात्र, डोरी, झोली आदि पास में लाकर उचित समय पर काष्ट के आसन पर या पादपुच्छन, अर्थात् पैर पोंछने वाले आसन पर बैठे तथा अपने दोनों ----------------- टिप्पण :- 'संघट्टा का अर्थ है - गोचरी जिन पात्रों में लेनी हैं, उन सभी पात्रों का प्रतिलेखन तीन-तीन बार करके अपने पास रखे और उन्हीं पात्रों में गोचरी ग्रहण करें। पैरों के जानु को ऊपर करके बैठे। उसकी विधि यह है : मुखवस्त्रिका सहित रजोहरण की दस्सियों को आगे के भाग में धारण करे और रजोहरण को दक्षिण कटि उत्संग में स्थापित करे तथा दक्षिण (दाएँ) हाथ से स्पर्श करे। उसकी यह विधि है- रजोहरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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