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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान सबका कल्याण करने वाला और सर्वधर्मों में श्रेष्ठ-ऐसा जिनशासन सदा विजयी हो।"
इसी प्रकार जिनकल्पी प्रव्रज्या विधान में भी लग्न के आने पर चैत्यवंदन, वेष अर्पण, सामायिक-दण्डक का उच्चारण और कायोत्सर्ग करवाए। पुनः अतीत के पापों का परित्याग कर सामायिक ग्रहण करे, तीन प्रदक्षिणा दे। फिर गुरु वासक्षेप प्रदान करे और कायोत्सर्ग करे। यहाँ जिनकल्पियों की दीक्षा में इतनी विधि विशेष है कि-मुण्डन के स्थान पर संपूर्ण लोच करते हैं, मुण्डन नहीं करवाते हैं। वेश ग्रहण में मात्र तृण का एक वस्त्र धारण करते हैं तथा चमरी की पूंछ या मोरपंखों से निर्मित रजोहरण ग्रहण करते हैं। शेष उपस्थापना-योग का उद्वहन आदि सब पूर्व में कहे गए अनुसार ही करते हैं। संघट्टदान, संघट्टप्रतिक्रमण गृहस्थ के घर में करते हैं तथा पाणि-पात्र, अर्थात् हाथ की अंजली में ही भोजन करते हैं।
शेष सर्व विधि पूर्ववत् ही होती है।
इस प्रकार वर्धमानसूरि विरचित आचारदिनकर में यतिधर्म के उत्तरायण में प्रव्रज्या-कीर्तन नामक उन्नीसवाँ उदय समाप्त होता है।
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