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आचारदिनकर (भाग-२)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान __ आमक सौवर्चल-अपक्व सौवर्चल नमक, सैन्धव-अपक्व सैन्धवनमक, रुमालवण-अपक्व रूमानमक, सामुद्र-अपक्व सामुद्रनमक, पांशुक्षार-अपक्व ऊषर भूमि का नमक और काला लवण-अपक्व कृष्णनमक लेना व खाना।
धूमनेत्र-धूम्रपान की नलिका रखना, वमन-रोग की संभावना से बचने के लिए ; रूप-बल आदि को बनाए रखने के लिए वमन करना, वस्तिकर्म-अपानमार्ग से तेल आदि चढ़ाना और विरेचन करना, अंजन-आँखों में अंजन आँजना, दंतवण-दाँतों को दातौन से घिसना, गात्र-अभ्यंग-शरीर में तैल मर्दन करना, विभूषण-शरीर को अलंकृत करना।
जो संयम में लीन और वायु की तरह मुक्त विहारी महर्षि निर्ग्रन्थ हैं, उनके लिए ये सब अनाचीर्ण है। पांच आश्रवों का निरोध करने वाले, तीन गप्तियों से गुप्त, छः प्रकार के जीवों के प्रति संयत. पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करने वाले, धीर, निर्ग्रन्थ ऋजुदर्शी होते हैं। सुसमाहित निर्ग्रन्थ ग्रीष्म में सूर्य की आतापना लेते हैं, हेमन्त में खुले बदन रहते हैं और वर्षा में प्रतिसंलीन होते हैं, अर्थात्-एक स्थान में रहते हैं। परीषहरूपी रिपुओं का दमन करने वाले, धुत मोह (अज्ञान को प्रकंपित करने वाले), जितेन्द्रिय महर्षि सर्व दुःखों के प्रहाण-नाश के लिए पराक्रम करते हैं। दुष्कर को करते हुए और दुःसह को सहते हुए उन निर्ग्रन्थों में से कई देवलोक जाते हैं ओर कई नीरज-कर्म रहित हो सिद्ध होते हैं। स्व और पर के त्राता निर्ग्रन्थ संयम और तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों का क्षय कर सिद्धि-मार्ग को प्राप्त कर परिनिर्वत मुक्त होते हैं - ऐसा मैं कहता हूँ।"
___ इसमें उद्देश और नियम-ग्रहण दोनों समाहित हैं। फिर वह नवदीक्षित “सर्वविरति-सामायिक-आरोपण हेतु मैं कायोत्सर्ग करता हूँ" - ऐसा कहकर एवं अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में चार बार चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट में चतुर्विंशतिस्तव बोले। तत्पश्चात्-“अखिल विश्व का कल्याण हो, सभी प्राणी परोपकार में तत्पर बनें, व्याधि, दुःख, दौर्मनस्य आदि दोषों का नाश हो और सम्पूर्ण लोक सुखी हो, सर्व मंगलों में मंगलरूप,
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