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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान
!! बीसवाँ उदय !! उपस्थापना-विधि
इस लोक में स्वयंबुद्ध अरहंत परमात्मा भी सामायिक-चारित्र को स्वीकार करके यतिधर्म की प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं। वे बुद्ध-बोधित नहीं होते हैं और पंचमहाव्रत उच्चारण रूप उपस्थापना से रहित होते हैं, अर्थात् छेदोपस्थापन-चारित्र ग्रहण नहीं करते हैं। छेदोपस्थापन-चारित्र ग्रहण की विधि आगे वर्णित है -
सबसे पहले नंदी-विधि सहित आवश्यकसूत्र, दशवैकालिकसूत्र के योगोद्वहन कराएं। फिर मण्डली-प्रवेश एवं योगोद्वहन के मध्य दशवैकालिक के तीन अध्ययन के तीन आयम्बिल होने पर नंदी एवं उपस्थापना विधि करे। आवश्यक, दशवैकालिक एवं मण्डली प्रवेश के योग की विधि योगोद्वहन-अधिकार में बताई गई है। उपस्थापना की विधि निम्नांकित है - उपस्थापन तिथि, वार, नक्षत्र, लग्न आदि का विचार प्रव्रज्या के मुहूर्त के समान ही करे। इस हेतु शिष्य के लिए वस्त्र, संस्तारक, मुखवस्त्रिका, रजोहरण, पात्र आदि सब नए लें। फिर चैत्य में या उपाश्रय में समवसरण की स्थापना करके गुरु शिष्य को तीन बार परमेष्ठी-मंत्र का उच्चारण कराकर पूर्व की भाँति समवसरण की तीन प्रदक्षिणा कराए। फिर वासक्षेप को अभिमंत्रित करे। तत्पश्चात् शिष्य खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके कहे - "इच्छापूर्वक आप मुझे महाव्रतों के आरोपणार्थ एवं नंदी-क्रिया करने के लिए वासक्षेप करे और चैत्यवंदन कराएं।" गुरु वासक्षेप करके पूर्व की भाँति शिष्य से स्तुतिसहित चैत्यवंदन करवाए। श्रुतदेवता आदि के कायोत्सर्ग एवं स्तुतियाँ पूर्व की भाँति ही की जाती हैं। फिर तीन बार नंदी-सूत्र का निम्न पाठ बोले -
"ज्ञान पाँच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं -आभिनिबोधिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवंज्ञान एवं केवलज्ञान । इनमें से चार ज्ञान मात्र जानने से सम्बन्धित हैं, वें उद्देश, समुद्देश से सम्बन्धित नहीं हैं और न ही उनकी अनुज्ञा होती है, किन्तु श्रुतज्ञान का उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोग होता है। अंग प्रविष्ठ
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