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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान उसी प्रकार व्रतबन्ध आदि करवाना चाहिए। व्रतबन्ध में उसको द्विजाति की प्राप्ति होती है। व्रत की अनुज्ञा आदि का दीक्षा-विधि में उपयोग नहीं होता है। यहाँ व्रतबन्ध भी वर्ण के आख्यापन के लिए ही हैं, क्योंकि शूद्र दीक्षा के योग्य नहीं होता - ऐसा कहा जाता है; किन्तु द्विजों के समान आचरण करने वाला शूद्र भी यदि बाल्यावस्था से क्षुल्लकत्व का पालन करने वाला हो, या व्रतकाल में मंत्र से मंत्रित जिन उपवीत को धारण करने वाला हो तो वह भी दीक्षा के योग्य है, उसे शिष्य बनाएं, अर्थात् प्रव्रज्या दें। वास्तव में ये संस्कार सदाचार के मार्ग में प्रवेश रूप हैं। दूसरे शब्दों में आचरण का प्रवेश द्वार है। कहा भी गया है - "व्यक्ति जन्म से तो शूद्र होता है, संस्कार से ही ब्राह्मण बनता है, अतः प्रव्रज्या (मुनिदीक्षा) के अतिरिक्त गृहस्थधर्म में लोकव्यवहार की अपेक्षा से शूद्र का उपनयन नहीं होता है, परन्तु व्रतदान में अर्थात् दीक्षा के पूर्व उसका भी उपनयन संस्कार करना आवश्यक होता है; क्योंकि उपनयन संस्कार में भी पुरुषमंत्र के द्वारा पुरुष की पूर्व की जाति एवं गृहस्थधर्म का त्याग करवाया जाता है।
पुरुष-मंत्र इस प्रकार है :
"ऊँ अहं पुरुषस्त्वं पुरुषज्ञस्त्वं पुरुषशीलस्त्वं पुरुषान्तरस्त्वं पुरुषध्येयस्त्वं पुरुषध्याता त्वं पुरुषोपास्यस्त्वं पुरुषोपासकस्त्वं पुरुषयोज्यस्त्वं पुरुषयोजकस्त्वं पुरुषावगन्ता त्वं पुरुषावगम्यस्त्वं पुरुषावक्षेप्यस्त्वं पुरुषाक्षेप्तास्त्वं पुरुषाभिगम्य त्वं पुरुषाभिगन्ता त्वं पुरुषपूज्यस्त्वं पुरुषपूजकस्त्वं पुरुषप्रणम्यस्त्वं पुरुषप्रणन्ता . त्वं पुरुषप्रणेयस्त्वं पुरुषप्रणेता त्वं उपास्यस्त्वं योगस्त्वं स त्वं यस्त्वं, अन्यस्त्वं परस्त्वं एवं त्वं असौ त्वं अयं त्वं त्वमेव पुरुष उपसंगृहाणहि अहं ऊँ।"
यह मंत्र तीन बार पढ़कर फिर शूद्र को जिन उपवीत दे। फिर व्रतकाल में गुरु के उपाश्रय में वेदी-रचना करके समवसरण की स्थापना करे। नानाविध पूजा के उपकरणों से समवसरण में स्थित अरहंत परमात्मा की पूजा करे। पश्चात् दीक्षार्थी के पितृपक्ष के लोग, मातृपक्ष के लोग, स्वजन, सम्बन्धीजन या अन्य गृहस्थ दीक्षार्थी को मनुष्य द्वारा खींची जाने वाली गाड़ी, घोड़े या शिविका पर आरूढ़ करके विवाह-प्रसंग के समान ही मंगलगान गाते हुए, वाद्य बजाते हुए
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