________________
आचारदिनकर (भाग-२)
13 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान के पाँचवें स्थान में यदि शुक्र हो तो उस मुहूर्त में दीक्षा नहीं देनी चाहिए। इसी प्रकार चन्द्र के उदय में या चंद्र के अंशोदय में, सोमवार को एवं चंद्र दर्शन के समय भी दीक्षा नहीं देनी चाहिए। किन्तु दीक्षा लग्न के दूसरे, पाँचवें, छटे एवं ग्यारहवें स्थान में सूर्य हो, दूसरे, तीसरे, छटें एवं ग्यारहवें स्थान में चंद्र हो, तीसरे, छटें, दसवें एवं ग्यारहवें स्थान में मंगल या बुध हो, केन्द्र (१, ४, ७, १०) और त्रिकोण (५, ६) में गुरु हो, तीसरे, छटें, नवें और बारहवें स्थान में शुक्र हो, दूसरे, पाँचवें और ग्यारहवें स्थान में शनि हो तथा लग्नांश में गुरु एवं शनि बलवान् हो तो दीक्षा विधि करनी चाहिए।
अन्य कुछ आचार्यों के मत से दीक्षा के लग्न में सूर्य तीसरे स्थान पर हो, चंद्रमा दसवें स्थान पर हो, गुरु और बुध आठवें एवं बारहवें स्थान पर हो, शुक्र केन्द्र में या आठवें स्थान पर हो तथा शनि तीसरे या छटें स्थान में स्थित हो तो दीक्षा नहीं देनी चाहिए।
दीक्षा लग्न के सातवें स्थान में चन्द्र, मंगल, शुक्र एवं शनि हो, तो वह दीक्षा लग्न भी दीक्षा विधि हेतु अभीष्ट नहीं है। इसी क्रम में दीक्षा लग्न में राहु और केतु के शुभाशुभत्व का विचार भी प्रतिष्ठा विधि के समान ही कर लेना चाहिए। दीक्षा लग्न में मंगल आदि के साथ चंद्रमा की युति हो वह दीक्षा लग्न भी इष्ट नहीं है, क्योंकि यह कलह, भय, मृत्यु, धन-हानि, विपत्ति और राजभय का कारण होता
है।
इस प्रकार के शुभलग्न में दीक्षा के पूर्व पौष्टिककर्म करे फिर महादान दें और सभी धमों और दर्शनों के अनुयायी सभी याचकों को संतुष्ट करे। यहाँ सम्पूर्ण विधियाँ वधू के पाणिग्रहण को छोड़कर विवाह की विधि के समान ही होती हैं। इस अवसर पर पुरुष का विवाह संयमललना के साथ होता है - ऐसा लोकव्यवहार है। पूर्व में बताए गए अनुसार उपनयन के द्वारा उपनीत, जिन्होंने गृहस्थधर्म, ब्रह्मचर्यव्रत एवं क्षुल्लकत्व का पालन किया है, ऐसे ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य इस व्रत के योग्य हैं। साथ ही तीनों वर्गों के उपनयन-संस्कार से रहित आठ वर्ष से अधिक वय के किशोर भी दीक्षा के योग्य होते हैं, अर्थात् उन्हें भी दीक्षा दी जा सकती है, किन्तु उन्हें मुनिदीक्षा देने के पूर्व उनकी उपनयन-विधि करनी चाहिए और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org