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________________ आचारदिनकर (भाग - २) जैनमुनि जीवन के विधि-विधान अन्य परम्पराओं में भी कहा गया है - " श्रेष्ठ जाति वाला, शुद्ध कुल वाला, विद्वान, सुन्दर अंग वाला, शान्त, इन्द्रियों को जीतने वाला और विषयों से विरक्त व्यक्ति ही संन्यास के योग्य होता है । " गृहस्थधर्म, ब्रह्मचर्य और क्षुल्लकत्व की उपासना कर चुकने वाला ब्रह्मचारी व्रत के लिए योग्य होता है। गृहस्थ - जीवन में ब्रह्मचर्य का बराबर पालन करने वाले और क्षुल्लकत्व की अवधि को पूर्ण करने वाले गृही को प्रव्रज्या ग्रहण न करने पर उसे पुनः गृहस्थधर्म में स्थापित किया जा सकता है, परन्तु प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् पुनः गृहस्थ नहीं हो सकता । जैसा कि आगम में कहा गया है "बाल्यावस्था, ब्रह्मचर्यावस्था एवं गृहस्थावस्था का त्याग करके मुनि के व्रतों को ग्रहण करने के बाद मृत्यु आने पर भी उनका परित्याग नहीं किया जा सकता हैं।" विधिपूर्वक उपनीत ब्रह्मचारी बालक ही व्रतारोपण के लिए योग्य है । यहाँ गुरु पूर्व में कहे गए अनुसार विधि करे । जैसा कि आगम में कहा गया है। " आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक तथा वाचनाचार्य या गीतार्थ श्रेष्ठ साधु दीक्षा देने के लिए योग्य है । जिन्हें साधु और श्रावक वंदन करते हैं, वे गुरुजन ही प्रव्रज्या देने के योग्य हैं, अन्य नहीं । “ गच्छ की समाचारी के अनुसार सामान्यतया आचार्य द्वारा ही प्रव्रज्या दी जाती है, किन्तु उनकी अनुपस्थिति में कभी-कभी उपाध्याय द्वारा भी दीक्षा दी जाती है । इसी प्रकार गणि आदि क्रम से दीक्षा देने के योग्य माने जाते हैं । दीक्षा की विधि इस प्रकार से है: 1 12 दीक्षा और महाव्रतारोपण ( बड़ी दीक्षा) में मूला, पुनर्वसु, माने स्वाति, अनुराधा, हस्त, श्रवण, पुष्य, विशुद्ध उत्तरात्रय नक्षत्र शुभ गए हैं। इसी प्रकार दूषित वारों, अर्थात् शुक्रवार एवं मंगलवार को छोड़कर अन्य वारों में, अशुभ तिथियों को छोड़कर अन्य तिथियों में, विशुद्ध वर्ष, मास एवं वार या दिन को देखकर, जन्ममास को छोड़कर, गोचर चंद्रबल के विशुद्ध होने पर तथा गुरु के बलवान् होने पर गुरु के और शिष्य के सम्बन्धों की सौहार्द्रता के हेतु ज्योतिष के आधार पर कुण्डली मिलान करके शुभलग्न में गुरु के सर्वबल से युक्त होने पर, ऊपर वर्णित गुणों से युक्त गुरु, शिष्य को दीक्षा प्रदान करे। शुक्र के उदय में, शुक्रवार को, शुक्रांश में तथा दीक्षालग्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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