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आचारदिनकर (भाग-२)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान महोत्सवपूर्वक अपने-अपने वर्ण के अनुसार विपुल अलंकारों को धारण करके तथा चैत्य में अरिहंत प्रतिमा की बहुमानपूर्वक पूजा करके गुरु के उपाश्रय में आएं। वहाँ प्रवेश करने के बाद अन्त में दीक्षार्थी वस्त्रअलंकार आदि स्वयं उतारकर, स्वयं सिर के केशों का लोच करे, या मुण्डन करवाकर सिर पर शिखामात्र रखे । परिधान, उत्तरासंगधारी, शिखा एवं सूत्र को धारण किए हुए (दीक्षार्थी) अपने परिजनों के साथ गुरु के पास जाए। वहाँ गुरु और दीक्षार्थी वेदी के मध्य भाग में जाकर समवसरण को तीन-तीन प्रदक्षिणा दे । यदि व्रत - ग्रहण चैत्य में करता है, तो शिष्य चैत्य की भी तीन प्रदक्षिणा दे । प्रदक्षिणा करते समय, शिष्य हाथ में गन्ध, अक्षत, फल एवं नारियल रखे। फिर शिष्य उच्चासीन, पूर्वाभिमुख बैठे हुए गुरु को खमासमणासूत्र से वंदन कर कहे “यदि आपकी इच्छा हो, तो आप मुझे प्रव्रज्या दे ।" तब गुरु कहे "मैं प्रव्रज्या देता हूँ ।" गुरु पूर्व में कहे अनुसार वास को अभिमंत्रित करे। तत्पश्चात् शिष्य खमासमणासूत्र पूर्वक वंदन कर कहे -" आप सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक, देशविरति सामायिक, सर्वविरतिसामायिक का आरोपण करने के लिए नंदीक्रिया करने हेतु मुझे अनुज्ञापूर्वक वासक्षेप करे एवं चैत्यवंदन कराएं।" फिर गुरु शिष्य के सिर पर वासक्षेप करते हुए कामधेनु मुद्रा से मंत्र द्वारा रक्षा करे । तत्पश्चात् वर्द्धमा॒नस्तुति से चैत्यवंदन करवाकर शान्तिदेवता, श्रुतदेवता, क्षेत्रदेवता, भुवनदेवता, शासनदेवता, वैयावृत्त्यकरदेवता के कायोत्सर्ग एवं स्तुति सब पूर्व की भाँति ही कराए। फिर शिष्य खमासमणासूत्र से वंदन करके कहे - “हे भगवन् ! आप मुझे प्रव्रज्या का वेश प्रदान करे ।" तब पूर्व की तरफ मुख किए हुए गुरु उत्तर दिशा की तरफ मुँह रखवाकर शिष्य को वेश अर्पण करे, यह ( गुरु का ) कर्त्तव्य है । चोलपट्टा, चादर, जानवरों के केशों से बना हुआ रजोहरण, अर्थात् ऊन का रजोहरण और मुखवस्त्रिका - यह मुनिवेश है। शिष्य " मैं इच्छापूर्वक ग्रहण करता हूँ"- ऐसा कहकर रजोहरण को दक्षिण स्कन्ध से सटाकर (लगाकर ) दोनों हाथों से वेश को ग्रहण करे। फिर ईशान कोण में जाकर पूर्व या उत्तराभिमुख होकर शिष्य मुनिवेश को धारण करे । दस्सियों से युक्त धर्मध्वज, अर्थात् रजोहरण को दक्षिण स्कन्ध से लगाकर अंगुलियों के मध्य में मुखवस्त्रिका को रखकर वह
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