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है। साथ ही उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया है कि महत्तरा पदस्थापना विधि और आचार्य पदस्थापन विधि में मूलतः क्या अन्तर होता हैं। आचार्य चतुर्विधसंघ का अधिनायक होता है, जबकि महत्तरा मात्र श्रमणी संघ की अधिनायिका होती है। साथ ही यह बताया है कि आचार्य द्वारा साध्वी वर्ग के उच्च पदों पर अधिष्ठित प्रवर्तिनी और महत्तरा की भी मुनिसंघ द्वारा वंदन विधि नहीं की जाती है। इस प्रकार वर्धमानसूरि ने श्रमणी संघ की स्वतंत्र व्यवस्था को स्वीकार करके ही साध्वी संघ को मुनि संघ के अधीन ही रखा गया हैं।
इसके पश्चात् प्रस्तुत कृति में श्रमण एवं श्रमणी संघ की सामान्य दिनचर्या एवं ऋतुचर्या का विधान हुआ है। इसमें मुख्य रूप से मुनियों और साध्वियों को दिन और रात्रि में कौन-कौनसी विधियाँ करनी चाहिए और अपने आचार में किस प्रकार से सावधानी रखना चाहिए - इसका उल्लेख किया गया है। ऋतुचर्या में छहों ऋतुओं में प्रत्येक ऋतुओं में किस प्रकार का आचरण करना चाहिए - इसका विस्तृत विवेचन किया गया है, साथ ही विहार और एक स्थान पर स्थिरता आदि के सम्बन्ध में भी विवेचन किया गया है। अन्त में मुनिजीवन से सम्बन्धित अन्तिम विधि के रूप में संलेखना ग्रहण करने की विधि दी गई है। इसमें संलेखना ग्रहण करने के काल आदि तथा मृत्यु की सन्निकटता जानने के उपाय भी बताए गए है। संलेखना सम्बन्धी जो विधि-विधान अन्य ग्रंथों में पाए जाते है, लगभग उन्हीं सब विषयों की चर्चा इस ग्रन्थ में भी हुई है। किन्तु विशेषता यह है कि इसमें मुनि के मृत शरीर की अन्तिम विधि किस प्रकार करनी चाहिए - इसका भी उल्लेख हुआ है। यहाँ वर्धमानसूरि ने प्राचीन आगमिक विधि और उस युग में प्रचलित विधि का समन्वय करने का प्रयत्न किया हैं।
प्राचीन विधि जो मूलतः निशीथ चूर्णि आदि एवं समाधिमरण सम्बन्धी श्वेताम्बर परम्परा के आराधनापताका आदि और दिगम्बर परम्परा के भगवतीआराधना आदि ग्रंथों में मिलती है, उसका उल्लेख
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