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________________ करते हुए अन्त में उन्होंने यह बताया है कि श्रावकों को मुनि संघ द्वारा विसर्जित मुनि की मृत देह का अग्नि संस्कार करना चाहिए। ज्ञातव्य है कि प्राचीन ग्रन्थों में मुनि की मृतदेह के अग्नि संस्कार का उल्लेख नहीं मिलता हैं। इस प्रकार हम देखते है कि प्रस्तुत कृति में प्राचीन परम्परा का अनुसरण करते हुए उन्हें लोक प्रचलित मान्यताओं के साथ समन्वित करने का प्रयत्न किया है। इसके पश्चात् अन्तिम तृतीय खण्ड में वर्धमानसूरि ने प्रतिष्ठा विधि, शान्तिक कर्म, पौष्टिक कर्म, बलि विधान - इन चार विधियों का उल्लेख किया है, जो मूलतः कर्मकाण्ड परक है, इसके अतिरिक्त प्रायश्चित्त विधि, षडावश्यक विधि और तप विधि - ये तीन विधियाँ श्रावक एवं मुनिजीवन की साधना सम्बन्धित है। अन्त में पदारोपण विधि का उल्लेख हुआ है। यह विधि वस्तुतः सामाजिक जीवन और राज्य प्रशासन पदों पर आरोपण की विधि को प्रस्तुत करती है। इस विधि की यह विशेषता भी है कि इस विधि में राज्य-हस्ती, राज्य-अश्व के पदारोपण का भी उल्लेख हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि उस काल में कुछ राजा, मन्त्री आदि जैन होते थे, जिनके लिए इन विधियों का वर्णन किया गया। इस प्रकार इस वर्ग में मुख्यतः आठ विधियों का उल्लेख हुआ है। इन विधियों का विस्तृत अनुवाद अग्रिम तृतीय खण्ड में प्रकाशित होगा, उस समय ही तृतीय खण्ड की भूमिका में हम इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे। अभी द्वितीय भाग में मात्र नाम निर्देश करके ही विराम ले रहे है। . इस प्रकार हम देखते है कि वर्धमानसूरि ने एक व्यापक दृष्टि को समक्ष रखकर जैन परम्परा और तत्कालीन समाज व्यवस्था में प्रचलित विविध विधि-विधानों का इस ग्रन्थ में विधिवत् और व्यवस्थित विवेचन प्रस्तुत किया है। जैन धर्म में उनसे पूर्ववर्ती कुछ आचार्यों ने साधु जीवन से सम्बन्धित विधि-विधानों का एवं जिनबिंब की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित विधि-विधान पर तो ग्रन्थ लिखे थे, किन्तु सामाजिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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