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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 168 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान वाचनाचार्य, महत्तरा, भिक्षा के लिए जाते समय अक्षपोट्टलिका, पट, इष्ट देवता की पूजा एवं मंत्र का स्मरण करते हैं। तत्पश्चात् आहार कर लेने पर पात्रों को अच्छी तरह से साफ कर, धोकर और अच्छी तरह से प्रमार्जन करके उन पात्रों को बांधने की जो विधि बताई गई है, उसके अनुसार बांधे। तत्पश्चात् पुनः ईर्यापथिकी के दोषों से पीछे हटकर, अर्थात् इरियावहि करके शक्रस्तव का पाठ करे। तत्पश्चात् मुनिजन थोड़े समय विश्राम करने के बाद गुरु एवं साधुओं की वैयावृत्त्य करें, बाल साधुओं को अध्ययन करवाएं, उपकरण को ठीक करें या बनाएं, पात्र आदि के लेप, अर्थात् पात्र रंगने का कार्य एवं लिखने-पढ़ने का कार्य करें। तत्पश्चात् चतुर्थ प्रहर में मुनि प्रतिलेखना और स्वाध्याय करें, उसकी सम्पूर्ण विधि आवश्यक उदय में वर्णित है। तत्पश्चात् षट्पदी से युक्त वस्त्र को षट्पदी जीवों की प्राणरक्षा के लिए एक मुहूर्त जंघा पर बांधे। इसके बाद बाल साधु और चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम भक्त के तपस्वी मुनि पुनः भिक्षाटन करके आहार करे। भिक्षा हेतु भ्रमण करने की विधि तथा आहार करने की विधि पूर्ववत् है। तत्पश्चात् संध्याकालीन आवश्यक क्रिया करे। चतुर्थ प्रहर के शेष भाग में संध्या के समय प्रभातकालीन प्रतिलेखना की तरह ही प्रतिलेखना करे। तत्पश्चात् रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत होने पर साधु मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके कहें - "हे भगवन् ! प्रथम प्रहर पूरा हो चुका, अब मैं रात्रि संथारा करूं ?" यह कहकर शक्रस्तव का पाठ करें। तत्पश्चात् साधु यथायोग्य संस्तारक पर निद्राधीन हों। शयन की विधि यह है - मुनि संस्तारक करके उस पर बैठकर परमेष्ठीमंत्र का या अन्य इष्ट मंत्र का जाप करे। तत्पश्चात् हाथ और पैर को संकोच बाएँ हाथ को सिर के नीचे तकिए की तरह लगाकर बाएँ पसवाडे में सोए। हाथ-पैर को फैलाते समय उस अंग की तथा उस स्थान की प्रतिलेखना करे। इस प्रकार रात्रि का तृतीय प्रहर व्यतीत होने पर ब्रह्ममुहूर्त में जाग्रत होकर साधु मन्द स्वर में इस प्रकार स्वाध्याय करे, जिससे अन्य व्यक्ति जाग न जाए - यह उत्तर-अध्ययन का रहस्य है। मुनियों की भाँति ही साध्वियाँ भी इसी चर्या का वहन करती हुई कषाय से विनिर्मुक्त एवं समतारस में लीन होकर संयम का पालन करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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