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________________ आचारदिनकर (भाग - २) 167 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान कोई भी अकार्य हो सकता है, जिसे बहुत से लोगों के मध्य में करना अशक्य हो । मल-मूत्र, वमन, पित्त इन सबसे व्याकुल, मूर्च्छा आदि से विमोहित तथा वाणी के विवेक से रहित मुनि यदि अकेला जाता है, तो भयंकर अकृत्य हो सकते हैं । एक दिन में भी जीव के अनेक शुभाशुभ परिणाम होते हैं । अशुभ भावों से युक्त अकेला मुनि दूसरे के आलम्बन से शुभ परिणामों का त्याग कर सकता है । स्थविरकल्प में सभी जिनों ने इसे अनुचित कहा है। अकेला मुनि तप और संयम से शीघ्र पतित हो जाता है ।" तत्पश्चात् दशवैकालिकसूत्र के पिण्डैषणा नामक अध्ययन में कही गई विधि के अनुसार आहार- पानी आदि ग्रहण करके पुनः वसति में आएं। गमनागमन में लगे दोषों की निम्न प्रकार से आलोचना करे - "हे भगवन् ! गमनागमन में लगे दोषों की मैं आलोचना करता हूँ। मार्ग में पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण दिशा में जाने-आने से कायसंज्ञा के त्याग से, अर्थात् प्रमादवश वनस्पतिकाय, त्रसकाय, स्थावरकाय जीवों के संस्पर्श से जो मेरा व्रत खण्डित हुआ है, विराधित हुआ है, उसके लिए मैं मिथ्या दुष्कृत देता हूँ ।" - यह गमनागमन आदि दोषों की आलोचना साधु-साध्वियों द्वारा हमेशा चैत्य से जाकर आने पर, रात्रि का एक प्रहर शेष रहने पर, अर्थात् अन्तिम प्रहर के समय पर, भिक्षा लेकर आने पर करनी चाहिए । तत्पश्चात् गोचरी चर्या के प्रतिक्रमण के लिए कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में नमस्कार मंत्र का चिन्तन करे । कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट रूप से नमस्कार - मंत्र बोलकर “पडिक्कमामि गोअरचरिआए. ' इत्यादि सूत्र ( दण्डक) बोलें। तत्पश्चात् -"अहो ! जिनेन्द्र भगवंतों ने साधुओं को मोक्ष- साधना के आधारभूत संयमी शरीर धारण ( रक्षण - पोषण) करने के लिए निरवद्य ( भिक्षा) वृत्ति का उद्देश दिया है । " - यह गाथा मौनपूर्वक बोलें। फिर गुरु के समक्ष (गृहस्थ के घर से) जिस विधि से आहार ग्रहण किया हो, उसका सम्पूर्ण विवेचन करे । तत्पश्चात् एक क्षण विश्राम करके ग्रासैषणा के पाँच दोषों का त्याग करते हुए भोजन करे। साधु-साध्वियों में आचार्य, उपाध्याय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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