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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान सत्त्व - वज्रपात की स्थिति में भी अप्रकम्प रह सके। इन्द्र के उत्तरवैक्रिय में तथा इसी प्रकार की अन्य सभी ऋद्धियों में भी लोभायमान न हो, रम्भा आदि अप्सराओं का दर्शन होने पर भी काम-वासना की इच्छा न करे। छः मास के उपवास होने पर नानाविध रस का लाभ, अर्थात् प्राप्ति होने पर भी उसकी अभिलाषा न करे।
__ एकत्व - एकत्व द्वारा सर्वइन्द्र, चक्री, अर्द्धचक्री (वासुदेव) का बल देखने पर भी किसी प्रकार की कोई अपेक्षा न करे और न ही दुष्ट देवता, जंगली जानवर द्वारा उपसर्ग होने पर दूसरे किसी व्यक्ति को देखकर रक्षा की अभिलाषा करे और न ही रोग आदि द्वारा पीड़ित होने पर भी शुश्रुषा की कामना करे। किसी भी जिनकल्पी को अपने स्वयं के सदृश किसी अन्य जिनकल्पी को अपने पास रखना नहीं कल्पता, तो फिर अन्य की तो बात ही क्या ?
बल - मदोन्मत्त हाथी, क्रूर सिंह आदि तथा चक्रवर्ती की सेना भी यदि सामने आ जाए, तो प्राणनाश के भय के कारण मार्ग से च्युत न हो, अर्थात् उनको मार्ग न दे।
इस प्रकार जिनकल्प को ग्रहण करते समय ये पाँच प्रकार की कसौटी की जाती हैं। यह जिनकल्पियों के उपकरण एवं चर्या की विधि है। स्थविर कल्पियों के बारह उपकरण पूर्व में कहे गए अनुसार ही .
“पत्तं" गाथा के अनुसार -
१. पात्र २. पात्रबन्ध ३. पात्रस्थापन ४. पात्रकेशरिका ५. पटल (पड़ला) ६. रजमाण ७. गुच्छक - ये सात प्रकार की पात्र सम्बन्धी उपधि हैं। तीन कल्प (वस्त्र), अर्थात् दो सूती चादर एवं एक ऊनी वस्त्र, रजोहरण एवं मुखवस्त्रिका - इन बारह उपकरणों के साथ मात्रक और चोलपट्टा - इन दो उपकरणों को मिलाने पर स्थविरकल्पी की चौदह प्रकार की उपधि होती है। इस प्रकार यह स्थविर जिनकल्पियों के उपकरण की संख्या बताई गई है। उपकरण का परिमाण इस प्रकार है - स्वभाविक रूप से मध्य परिमाण का पात्र
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