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आचारदिनकर (भाग-२)
जैनमुनि जीवन के विधि-विधान तीन बेंत और चार अंगुल परिमाण की परिधि वाला होना चाहिए। इससे कम परिमाण वाला पात्र जघन्य एवं इससे अधिक परिमाण वाला पात्र उत्कृष्ट कहा जाता है। यह लकड़ी के पात्र का परिमाण है। नारियल एवं तुम्बी से निर्मित तिर्पणी, कटाहक आदि पात्रों का परिमाण, उसकी प्राप्ति, योग्यता एवं प्रयोजन पर निर्भर है, अर्थात् वे जैसे मिलते हों, जैसी आवश्यकता हो और जैसा उनका प्रयोजन हो, उस पर उनका परिमाण निर्भर करता है। मिट्टी के पात्रों में यथा घड़े एवं कुण्डे आदि का परिमाण भी साधु की संख्या पर एवं आहार और पानी की गवेषणा की मात्रा पर निर्भर करता है, किन्तु यति के सभी पात्रों में दृष्टि प्रतिलेखना द्वारा शुद्धि की जा सके, इस प्रकार का उसका संस्थान एवं परिमाण होना चाहिए। जैसा कि उक्त आगम में कहा गया है - "जिस पात्र में हाथ जा सके एवं चारों तरफ दृष्टि जा सके, वह पात्र मुनि के लिए निश्चित रूप से योग्य है, शेष सभी पात्र अयोग्य हैं। पात्रों की प्रतिलखेना सम्यक् प्रकार से हो सके, इसलिए पात्र बारह अंगुल बाहर एवं बारह अंगुल अन्दर हो - इस परिमाण का होना चाहिए, किन्तु अन्दर हाथ डालने वाला पात्र पच्चीस अंगुल परिमाण का होना चाहिए।"
पात्रबंध का परिमाण पात्र के परिमाण से अधिक होना चाहिए, अर्थात् पात्र बाँधने पर उसके चार अंगुल छोर लटकते रहें। पात्र स्थापनक, गुच्छक और पात्र प्रतिलेखन करने की पूंजणी - इन तीनों का परिमाण एक बेंत चार अंगुल होता है। पात्र स्थापनक में पात्र रखने के बाद हाथ में डालने हेतु एवं गांठ देने के लिए एक बेंत चार अंगुल का परिमाण आवश्यक है। इसी प्रकार गुच्छक का परिमाण एक बेंत चार अंगुल का होना आवश्यक है। पात्र प्रतिलेखनी, अर्थात् पूंजणी में एक बेंत की डण्डी एवं चार अंगुल की दसियाँ होती हैं। पटल (पड़ला) ढाई हाथ लम्बा और छत्तीस अंगुल चौड़ा एवं केले के गर्भ के समान, अर्थात् सफेद, मोटा, कोमल, मजबूत एवं स्निग्ध होना चाहिए। पुनः उसका परिमाण यति के शरीर एवं पात्रों की मोटाई के अनुसार होता है। प्राणियों की रक्षा के लिए ग्रीष्म, हेमन्त एवं वर्षा ऋतु में पटल उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य के भेद से तीन प्रकार के
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