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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 131 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान एक स्थान पर रख दे। श्रावकगण उस वेश के समीप गीत, वाद्य आदि महोत्सव द्वारा रात्रि-जागरण करे। लग्न के दिन केशलुंचन किए हुए भावी आचार्य ब्रह्ममुहूर्त में उठकर कालग्रहण करे और स्वाध्याय प्रस्थापन करे। इस स्थान पर (शिष्य) भगवन् (गुरु) के समक्ष करने योग्य कार्य का उच्चारण करते हैं और पत्र के अन्दर लिखते हैं तथा सिंह-आसन के समान ही आसन की स्थापना करते हैं। फिर आचार्य मुहूर्त (लग्न) का समय निकट आने पर प्रतिलेखित भूमि पर कम्बल आदि की प्रतिलेखना करके दो आसन बिछाए और उस आसन का स्पर्श करके कहे – “यह स्थापनाचार्य के योग्य है।" तब उस पर स्थापनाचार्य (अक्षयग्रन्थि) की स्थापना करे और दूसरे आसन पर स्वयं बैठे। फिर मात्र चोलपट्टा, मुखवस्त्रिका, रजोहरण को धारण किए हुए भावी आचार्य गुरु के आगे खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके कहे - "हे भगवन् ! मैं प्रभातकाल प्रवेदित करूं ?" गुरु कहे - “प्रवेदित करो।" पुनः शिष्य खमासमणासूत्र पूर्वक वन्दन करके कहे -"हे भगवन् ! प्रभातकाल को प्रवेदित करे". गुरु कहे - "गुरु-परम्परा से प्राप्त सूत्र, अर्थ एवं सूत्रार्थ द्वारा महाव्रतरूपी गुणों का वर्द्धन करते हुए संसार-सागर पार करो।" फिर शिष्य (भावी आचार्य) गुरु के आगे वन्दन करके, मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे। तत्पश्चात् गुरु और शिष्य - दोनों ही स्थापनाचार्य के आगे द्वादशावतपूर्वक वन्दन करे, फिर भावी आचार्य खमासमणासूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे - “हे भगवन् ! मैं स्वाध्याय करूं ?" फिर गुरु एवं शिष्य पूर्ववत् स्वाध्याय प्रस्थापन करे। फिर दोनों ही “स्वाध्याय करणार्थ मैं कायोत्सर्ग करता हूँ"- ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में नमस्कारमंत्र का चिन्तन करे। फिर कायोत्सर्ग पूर्ण करके दोनों ही हाथों को ऊपर की ओर लेकर चतुर्विंशतिस्तव बोलकर “धम्मो मंगल" से लेकर “संजमे सुट्ठि अप्पाणं" तक की सत्तरह गाथाओं का. मौन पूर्वक स्वाध्याय करें। पुनः मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके स्थापनाचार्य को वन्दन करें। अब खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके शिष्य कहता है -“स्वाध्याय प्रवेदित करें" पुनः मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके वन्दन करता है। फिर गुरु अपने पाट पर बैठता है। शिष्य शेष स्वाध्याय विधिपूर्वक पूर्ण करे। फिर चैत्य में, या विशुद्ध आगे वन्दन के दोनों ही स्थमासमणासूत्रपल एवं शिष्य प्रायोत्सर्ग करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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